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किया है -
शिक्षा दीक्षा शून्य मनुज पशु, शिक्षा है धरती का स्वर्ग।
तेजस्वी पुरूषों के लिए 'सूर्य' एवं 'रत्न' परक प्रतीकों का बिम्बान्कन होता रहा है। कवि ने 'सूर्य' और 'बैडूर्य' प्रतीक से तेजस्वी ऋषभ देव को बिम्बित किया है। बहली देश के रमणीक उद्यान से ऋषभ के प्रस्थान कर जाने पर उद्यानपाल बाहुबली से कहता है -
देव ! न देखेंगे दो सूर्य, नहीं सुलभ अब वह वैडूर्य । एक सूर्य का नभ में यान, अपर सूर्य का तब प्रस्थान। ऋ.पृ. 138
क्षणभंगुर जीवन के लिए ‘इन्द्रधनुष' का प्रतीकात्मक बिम्ब प्रयुक्त किया गया है -
उदित हुआ वर केवल ज्ञान
हो सकता सर्वज्ञ मनुष्य, शेष जीव हैं इन्द्र धुनष। ऋ.पृ. 145
कैवल्यज्ञान अमृत कलश के समान है जिसकी प्राप्ति से साधक है सर्वज्ञ भी हो सकता है, शेष जीवों में यह सम्भावना नहीं रहती। इसीलिए ऐसे प्राणियों के लिए 'इन्द्रधनुष' का बिम्ब दिया गया है। हिंसा अथवा अशांति तथा प्रेम और शांतिमय वातावरण के लिए क्रमशः 'गरल' और 'सुधा' का प्रतीकात्मक बिम्ब भी
दृष्टव्य है -
कर देता निर्वीर्य गरल को, एक सुधा का प्याला।
ऋ.पृ. 165
युद्ध के परिप्रेक्ष्य में 'निर्बल' और 'सबल' के प्रतीक के रूप में 'मृग' और 'चीता' का बिम्ब प्रयोग में लाया गया है। सेनापति के खड्ग रत्न के प्रहार से गिरिजनों की सेना वैसे ही पलायन कर जाती है जैसे मृग ने चीता देख लिया हो
सेनानी ने खड्ग रत्न ले, क्षण में सबको जीता किया पलायन जैसे मग ने, देख लिया हो चीता।
ऋ.पृ. 171
'सदप्रेम' तथा निराशा भाव के लिए क्रमशः 'शतदल' एवम 'तमस' प्रतीक
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