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'चलती न किसी की इस जग में मनमानी' 244, 'जैसा शासक जनता भी वैसी होती' 245, 'अपनी स्वतंत्रता लगती सबको प्यारी 180, आदि लोकोक्तियाँ भी बिम्ब विधायक हैं ।
प्रतीक
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उपमान जब किसी उपमेय के लिए रूढ़ हो जाते हैं तब वे प्रतीक बन जाते हैं। आचार्य भगीरथ मिश्र के अनुसार 'प्रतीक भी अलंकार का ही एक स्वरूप है, जो वर्णन में प्रस्तुत विधान के तिरोभाव और अप्रस्तुत विधान के विशिष्ट और सुष्ठु उभार, निखार और चमत्कार के द्वारा संपादित होता है । 3 प्रतीक में अप्रस्तुत का विशेष महत्व होता है । यह अप्रस्तुत अपने गुण, धर्म एवं विशेषता के कारण इतना पारदर्शी होता है कि जिस संदर्भ में इसका प्रयोग किया जाता है उसका खुलासा वह उसी रूप में कर देता है। वाणी एवं शब्द की प्रभावोत्पादकता इसकी मूर्तन शक्ति से और भी अधिक बढ़ जाती है। 'प्रतीक' की भाषा जटिल होती है । इसलिए इसका सटीक प्रयोग सधा सधाया कवि ही कर पाता है। प्रतीकों का प्रयोग प्रायः कवियों द्वारा या तो पारम्परिक रूप में किया गया है अथवा नवीन रूप में । आचार्य महाप्रज्ञ ने दोनों प्रकार के प्रतीकों का उपयोग किया है । कवि ने पारम्परिक रूप में प्रयुक्त छुई-मुई, पशु, सूर्य, रत्न, इन्द्रधनुष आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है, जो कथ्य के प्रति सटीक प्रतीकात्मक बिम्बों का सृजन करते हैं ।
शिशु की अकाल मृत्यु से युगलों की मनःस्थिति छुई-मुई जैसी हो जाती है । 'छुई-मुई' के प्रतीकात्मक बिम्ब से मृत्यु के प्रति युगलों की भयाक्रान्त मनः स्थिति को व्यक्त किया गया है
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काल मृत्यु से परिचित था युग, असमय मृत्यु कभी न हुई ।
प्रश्न रहा होगा असमाहित बनी मनः स्थिति छुई-मुई ।
ऋ. पृ. 41 'अज्ञान' अथवा अविवेक के रूप में कवि ने 'पशु' का बिम्ब निरूपित
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