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लाक्षणिक बिम्ब का सौदर्य दृष्टव्य है -
रंगभूमि में ये दोनों नट, खेल रहे हैं नाना खेल इनके पर्यायों से ही है, हरी-भरी जीवन की बेल।
ऋ.पृ. 5 उपर्युक्त पंक्तियों में दोनों नट' के लक्ष्यार्थ से प्रकृति की चेतन व अचेतन सत्ता तथा जीवन को हरी भरी बेल से बिम्बित किया गया है, जबकि 'चेतन'
और 'अचेतन' नट नहीं है, जो खेल खेलें और न ही जीवन कोई बेल है जो हरी भरी हो। पर ऐसी कहने की परम्परा हो गयी है। अतः यहां 'हरी भरी जीवन की बेल' का लक्ष्यार्थ जीवन के समुचित विकास से है।
'खग के पाँव पसार कर उड़ जाने के लक्ष्यार्थ से शरीर से प्राण निकलने की क्रिया का सशक्त बिम्ब भी उदघाटित है।
उनपचास दिन तक करता है, लालन-पालन युगल उदार एक छींक या जंभाई ले, उड जाता खग पाँव पसार।
ऋ.पृ. 11
जीवन की गतिशीलता को 'पोत' की गतिशीलता से भी लक्षित किया गया है, जबकि जीवन कोई पोत नहीं है जो जल में चले। किन्तु जीवन और पोत में गति करने की साधर्मिकता है, पौरूष उसका सम्बल है। यहाँ गौणी लक्षणा के सहारे यौगलिक जीवन को बिम्बित किया गया है -
अपने पौरूष से चलता है, नवयुवकों का जीवन पोत अपना दीपक अपनी बाती, स्नेहसिक्त अपना उद्योत।
ऋ.पृ. 12
इसी प्रकार समय के निरंतर गतिमान बने रहने की क्रिया का उद्घाटन
भी 'रथ' के लाक्षणिक प्रयोग से किया गया है जिससे उत्सर्पिणी काल की उन्नत दशा के पश्चात अवसर्पिणी काल की अवनति दशा को दर्शाया गया है
बढ़ा समय रथ जैसे आगे, चला हास का वैसे चक्र उन्नति अवनति की यात्रा में, कभी सुलभ पय, दुर्लभ तक्र। ऋ.पृ. 12
'सुलभ पय' के लक्ष्यार्थ से सुख सुविधा तथा 'दुर्लभ तक्र' के लक्ष्यार्थ से जीवन की समस्याओं की ओर भी लक्षित किया गया है। संस्कृति का विकास मानव
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