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उद्घोषित कर निर्देश नृपति का सेनापति ! तुम जाओ सिन्धु नदी के पार्श्व देश में, विजय ध्वज फहराओ
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शिरोधार्य कर आज्ञा नृप की, सिंधु तीर पर आया लिया हाथ में चर्मरत्न को, सविनय शीष झुकाया सिंधु नदी के आर-पार तक, चर्म बना अब नौका जल में स्थल के अनुभव का यह कितना दुर्लभ मौका । सेनानी के सेना - बल को, सहसा पार उतारा
महाशक्ति के सम्मुख आता, अपने आप किनारा ।
ऋ. पृ. 166
ऋ. पृ. 167 अभय की उत्सर्पिणी काल में पल रहा बहली देश सुख शांति का जीवन रहा है । कृषक, सिद्ध, योगी तथा प्रकृति अपने-अपने कर्म में संलग्न हैं । इन सभी दृश्यों का बिम्ब अभिधा के द्वारा ही ज्ञापित हो पाया है । बहली की सीमा में प्रवेश करते ही भरत के संदेश वाहक सुवेग को चारों ओर रम्यता ही रम्यता दिखाई देती है
दूत के आगमन से भय, भीत तक्षशिला नही T
अभय की उत्सर्पिणी में, नवल सुषमा ही रही । शकुनि गण का मंजु कलख, श्वास परिमल का लिया स्वागतं बहली धरा पर, मृदुल किसलय ने किया । कृषक निज-निज खेत में, खलिहान में संलग्न हैं सिद्ध योगी भावनामय, साधना में मग्न हैं । बाहुबलि की सुयश गाथा, गा रहे हैं भक्ति से भीतरी अनुरक्ति पावन, उपजती है शक्ति से । सफल वातावरण श्रद्धा, सिक्त अति सम्मान है अमल ज्योत्सना पूर्णिमा के, चन्द्र का अवदान है। वृत से आबद्ध कलि का, फलित पुष्प पराग है । एकता का सहज अनुभव, प्रेम का अनुभाग है ।
ऋपृ. 231
ऋ. पू. 230
दूत से बाहुबली के वार्तालाप का बिम्बांकन भी अभिधा के द्वारा किया
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