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लोभ
व्यक्ति में जब लोभ मनोविकार का विकास होता है, तब उसकी सोच 'स्व' तक ही सीमित रहती है। अतिक्रमण, झीनाझपटी, स्वत्वहरण, अशांति उत्पन्न करने वाले कुविचार उसमें आते रहते हैं, जिससे समाज की व्यवस्था डगमगा जाती है । काल परिवर्तन के साथ जो युगल ममताभाव से मुक्त थे, जो प्रखर चेतना के स्वामी थे, वे ही लोभ भाव से इस कदर ग्रसित हो गए जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी ।
कल्पवृक्ष द्वारा कार्पण्य करने पर युगलों में दूसरे के कल्पवृक्षों पर अधिकार जमाने की भावना प्रबल हुई। लोगों में लालच वृत्ति को बढ़ाने वाली हवा के एक भयानक झोंके से लोभ रूपी अग्नि इस प्रकार प्रज्वलित हुयी कि संपूर्ण सामाजिक मर्यादाएं जलकर राख हो गयी
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जड़ता
धीमे-धीमे मानस बदला युगलों का, आया लालच का एक भयानक झोंका | पर - वृक्षों पर अधिकार जमाना चाहा, इस लोभ - अग्नि में सब कुछ होता स्वाहा ।।
ऋ. पृ. 21
उपर्युक्त पंक्तियों में लोभ के लिए 'अग्नि' तथा 'हवा के झोंके' का बिम्ब प्रयुक्त किया गया है। 'हवा' से 'अग्नि' की ज्वाला बढ़ती है। यहाँ 'हवा के एक झोंके से लालच की उत्पत्ति का कारण तथा 'अग्नि' बिम्ब से लोभ की दाहकता के साथ उसके प्रतिफल को व्यक्त किया गया है ।
इष्ट अथवा अनिष्ट के देखने सुनने से चित्तवृत्ति का विवेक शून्य होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना 'जड़ता है । (8) नरशिशु के मृत्योपरांत सुनन्दा की दशा चेतनाशून्य उस प्रतिमा की भाँति जड़वत हो गयी जिसमें किसी प्रकार की कोई हरकत नहीं होती
हिल न सकी वह, बोल सकी ना, मानस चिंतन- शून्य हुआ ।
प्रतिमा- सी स्थिर स्तब्ध खड़ी है, जीवन हाय अनन्य हुआ ।। ऋ.पू. 40
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