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7. कृतकृत्यता (धन्यता)
धन्यता भाव से संबंधित कुछ बिम्ब ऋषभायण में मिलते हैं। राजा द्वारा राज्य व्यवस्था का संचालन कुशलतापूर्वक तभी किया जा सकता है, जब वह करूणा का आगार हो, जनजन के प्रति उसमें समर्पण का भाव हो। राजा और जनता दोनों एक दूसरे के पूरक उसी प्रकार हैं, जिस प्रकार सागर और उसकी एक-एक बूंद । सागर की सत्ता बूंद पर है और बूंद का अस्तित्व सागर पर केन्द्रित है। एक को छिपाकर दूसरे के अस्तित्व का प्रकाशन सम्भव नहीं है। यहाँ चिंतन को नवीन दिशा देते हुए कवि ने 'सिन्धु' और 'बिन्दु' के बिम्ब से राजा का समर्पण जनता के प्रति और जनता का समर्पण राजा के प्रति बिम्बित किया है -
छोटा मण्डल, छोटी सीमा, नेता में करूणा का सिन्धु । सागर भिन्न नहीं है मुझ से, अनुभव करता है हर बिन्दु।।
ऋ.पृ. 71
महाप्रभु ऋषभ के साथ मुनिवेश में जाने के लिए तत्पर कच्छ महाकच्छ उनके उपकार के बदले अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करते हैं। ऋषभ ने यौगलिक समाज को जीवन जीने की दिशा प्रदान करते हुए जो सुचारू राज्यव्यवस्था दी, कोई भी विज्ञ उस उपकार को विस्मृत नहीं कर सकता। यहाँ 'आकंठ निमग्न' शब्द चित्र से ऋषभ के प्रति कच्छ महाकच्छ की धन्यता ज्ञापित हुई है -
प्रभु का बहु उपकार है, हम आकंठ कृतज्ञ । उपकारी का साथ दे, होता वही अभिज्ञ ।।
ऋ.पृ. 99 युवराज श्रेयांस द्वारा चक्रमण कर रहे ऋषभ को इक्षुरस से पारणा कराने पर जनता उन्हें बधाई देते हुए पिता के समान वात्सल्य प्रदान करने वाले ऋषभ के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर उनकी स्नेहमयी दृष्टि को अमृत आस्वाद बिम्ब से प्रस्तुत करती है -
पिता तुल्य वात्सल्य शल्यहर, प्रभु हम सबको देते थे। स्नेहसिक्त नयनों से बरसा, सुधा, तृप्त कर देते थे।। ऋ.पृ. 133 'तमस' और 'प्रकाश' के बिम्ब से क्रमशः अज्ञान और ज्ञान को चित्रित
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