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ममता के कोमल धागों से बनता मनुज समाज !
ममता की अति ही करती है, मानव मन पर राज
तोडूं ममता का तटबंध, जिससे बनता सनयन अंध ।।
ऋ. पृ. 82
प्रेम में त्याग होता है, मोह में स्वार्थ । स्वार्थ के वशीभूत मन उपलब्ध वस्तु I के त्याग से पीड़ित होता है। मुनि मार्ग पर अग्रसर ऋषभ के राज्यत्याग से भरत की पीड़ा वस्तुतः उनके प्रति मोहग्रस्तता की पीड़ा है इसीलिए उन्हें उनके कमलवत् चरणों की छाया में जो सुख रूपी शीतलता मिलती है, वह शीतलता 'आत पत्रों' की छाया में संभव नहीं है
पद - पंकज की छाया में है, जो शीतल अनुभाव आतपत्र की छाया में है, उसका सतत अभाव ।
ऋ.पू. 85 'जल' और 'तरू' के बिम्ब से मोहग्रस्त मानव का बिम्ब अप्रस्तुत विधान के अंतर्गत किया गया है । ऋषभ जैसे विराट व्यक्तित्व के लिए ममता मोह का बंधन एक झटके से तोड़ना आसान है किन्तु सामान्य व्यक्ति के लिए नहीं । जिस प्रकार जल से तरू का पोषण होता है, वैसे ही ममता से व्यक्ति का पोषण होता है । मित्र और परिवारजनों के कथन में मोह का ही बिम्ब निर्मित होता है
मित्र और परिवार जन, बोले वच साक्रोश,
दुष्कर गृह का त्याग है, जल ही तरू का पोष ।
ऋ. पू. 99 माया मोह के बंधनों से मुक्त ऋषभ को सुख से विचरण करने की बात कहते हुए भरत कहते हैं कि यह नगर निवास भी बंधन का कारण है
यह बंधन है पुर-वास प्रभो ! तुम मुक्त हुए सुख से विचरो । ऋ. पृ. 104
रागयुक्त व्यक्ति इस समरांगण रूपी संसार का परित्याग नहीं कर सकता। निर्ममत्व व्यक्ति ही ममता के बंधनों से सहजता से मुक्त हो सकता है, भरत ऋषभ से कहते हैं
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निर्ममत्व तुम, हम ममता के, कोमल धागों से आबद्ध, रागमुक्त तुम, रागयुक्त हम, समरांगण में हैं सन्नद्ध ।
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ऋ. पृ. 105