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3.
मोह
भय, वियोग आदि से भ्रम उत्पन्न होकर चित्त में व्याकुलता का उत्पन्न होना और उससे वस्तु का यथार्थ ज्ञान न रह जाना मोह है।) ममता मोह का ही एक रूप है। ऋषम के प्रयास एवं प्रभाव से यौगलिक जीवन में परिवार संस्था का विकास हुआ। अभी तक जो युगल कल्प वृक्षों की छाया में माया-मोह से विरत उन्मुक्त जीवन जीते थे अब उनमें ममकार वृति से माता, पिता, भाई, पत्नी, पुत्र, धन, घर आदि के बंधनों के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा। ये बंधन मोह के ही बंधन हैं। यहां पारिवारिक संबंधों के बिम्ब से मोह बंधन को रेखांकित किया गया है -
मम माता, मम पिता सहोदर, मेरी पत्नी, मेरा पुत्र। मेरा घर है, मेरा धन है, सघन हुआ ममता का सूत्र।। ऋ.पृ.68
'असि' और 'म्यान' के बिम्ब से भी ममता मोह भाव को व्यक्त किया गया है। किसी भी वस्तु के प्रति प्रतिबद्धता मोह का कारण है। जिस प्रकार 'असि' की विश्रांति 'म्यान' में है, उसी प्रकार युगलों की प्रतिबद्धता अपने घर, कृषि, भूमि, वन, उद्यान तक ही सिमट कर रह गयी -
अपना घर, अपनी कृषिभूमि, अपना वन, अपना उद्यान मर्यादा में निश्रित सब जन, प्राप्त हुआ है असि को म्यान
ऋ.पृ.69
मोह भाव के बढ़ जाने पर सामाजिक मर्यादाओं का भी अतिक्रमण होने
लगता है, परिस्थितियाँ तो निमित्त मात्र होती है -
मर्यादा के अतिक्रमण का, उपादान वैयक्तिक मोह। है निमित्त परिस्थिति, उससे, कल्लोलित होता विद्रोह।।
ऋ.पृ.73
'कोमल धागों के बिम्ब से ममता-मोह की प्रगाढ़ता को व्यक्त किया गया है। चैतन्य मनुष्य भी सांसरिक विषय-विकारों के कारण मोहांध हो जाता है। जब तक वह ममता के तटबंधों को नहीं तोड़ता तब तक इस विकार से मुक्त नहीं हो पाता। धर्म प्रवर्तन के लिए व्याकल ऋषभ चिंतन करते हैं -
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