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गज-आरोही प्रभु-सम्मुख पहुंच न पाता, आदीश्वर ईश्वर समतल का उद्गाता । इस अहंभाव ने भाई! पथ रोका है, इस भव सागर में मार्दव ही नौका है।
ऋ.पृ.294
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2. शंकाभाव
विषम, अनष्टि अथवा इष्ट हानि के विचार को 'शंका' कहते हैं। ऋषभायण में शंका भाव के अनेक बिम्ब प्रयुक्त हुए हैं। तालफल के आघात से नर शिशु के निर्जीव शरीर को देखने के पश्चात् युगल दम्पति के हृदय में मृत्यु के प्रति एक ऐसी संशय की रेखा निर्मित हो गयी, जिसका कोई निदान नहीं
आए तालवृक्ष-परिसर में, देखा, जो न कभी देखा, कहा ऑख ने, किंतु हृदय पर, खचित रही संशय-रेखा।
ऋ.पृ.40
अकाल मृत्यु की भयावह स्थिति में मुरझाए हुए सुमन के बिम्ब से प्रयुक्त कर सुनन्दा प्रकृति के "उन्मेष निमेष' चक के प्रति शंकालु हो उठती है
मुरझाया सुम नहीं खिलेगा, तात! मृत्यु का अर्थ यही ? या उन्मेष-निमेष-चक्र है, क्या यह धारा सदा बही ? ऋ.पृ. 41
झुरमुट से झांकते हुए सूर्य की किरणों के बिम्ब से मानव की शंकालु प्रवृत्ति का उद्घाटन किया गया है
लता मंडपों के प्रांगण में, तम का अति आतंक। झुरमुट और निकुंज कुंज से, सूरज किरण सशंक। वल्लभ है आतप का अंक, शंकाकुल ईश्वर भी रंक।
ऋ.पृ. 80 ऋ.पू. 80
शंका भाव भी अभिव्यक्ति 'आमय कर पेय' के बिम्ब से भी की गयी है।
शासन तंत्र का उपदेश देते हुए ऋषभ भरत से कहते हैं, श्रेष्ठ शासन वह है जो जनता की संपूर्ण दुविधाओं का समाधान करे। यदि जनता की दुविधा का शासन द्धारा शमन नहीं होता तो वह उस पेय पदार्थ की भॉति है जो व्याधि का कारण होता है
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