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राज्य पर ही नहीं बल्कि प्रजा के मनोमय धरातल पर भी विकसित था। उस समय अतिक्रमण, छीनाझपटी के अतिरिक्त गंभीर अपराध नहीं होते थे, जिस कारण ऋषभ ने 'वाचिक' दण्ड का नियोजन किया था। कालान्तर में ज्ञान के क्षेत्र मे विकसित मानव ने आर्थिक युग में प्रवेश किया, अपराध बढ़े, जिसके नियमन हेतु उत्पीड़क दण्ड विधान का सृजन हुआ। उस समय अपराध शून्यता का कारण व्यक्ति का आत्मानुशासन अर्थात् मस्तिष्क पर हृदय का नियंत्रण था किंतु आज इस बौद्धिक युग में हृदय का दरवाजा ही बंद है। या यों कहें मस्तिष्क पक्ष सक्रिय है, हृदय पक्ष निष्क्रिय। मस्तिष्क की यह सक्रियता हृदय की संवेदनशीलता को शुन्य कर स्वयं मानव-मानव के लिए मानसिक पीडा व मानसिक तनाव तथा अन्य
असाध्य रोगों का कारण बनी हई है :
ही से धी अनुशासित होती, श्री बढ़ती है अपने आप, केवल बौद्धिक संवर्धन से, बढ़ता है मानस संताप
ऋ.पृ.-74.
वंसतोत्सव से पाँचवे सर्ग का प्रारंभ होता है 'भरतराज्याभिषेक' का दृश्य है। प्रकृति का चरम सौंदर्य आभाकारी है। पुष्प आभरणों से सुसज्जित बालाओं का सौंदर्य परमशांति का संदेश दे रहा है। मधु मंथर गति से अनिल प्रवहमान है। संपूर्ण परिवेश सुवासित एवं मांगलिक है। पूरा समाज सुख की सरिता में निमग्न है। ऐसे मनोमय परिवेश में पुष्प आभरण से सुशोभित ऋषभ ऐसे प्रतीत हो रहे हैं जैसे 'पुष्पवास' गृह में साक्षात वसन्त मूर्तित हो गया हो।
इस सर्ग में आचार्य महाप्रज्ञ ने कथा का विस्तार सामान्य रूप से करते हुए उसे दर्शन, अध्यात्म की ऊँचाई दी है। कथ्य में व्यवहार और दर्शन साथ-साथ चलते हैं। लौकिक तथा अलौकिक दृश्य समानान्तर किंतु द्रुतगति से विकसित हो, चिंतन का नया आकाश रचते हैं। जगत में एक ओर इन्द्रिय तृप्ति जन्य लोकेषणा है, तो दूसरी ओर आत्मा के उत्थान की संपूर्ण प्रक्रिया। यदि इंद्रिय सुख पौद्गलिक है तो आत्मानन्द अपौद्गलिक। पुद्गल नश्वर है, अपुद्गल अनश्वर है। इस पुद्गल सुख के लिए एक मानव के द्वारा दूसरे मानव का
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