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हाथों का मूल्य समझ 'कर्म' के लिए तत्पर हुए। युगलों के कठिन परिश्रम से धरती पर चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई देने लगी। श्रम सार्थक हुआ। भय और भूख की दुश्चिन्ताएँ समाप्त हुई। सबके होठों पर निर्भयता एवं पूर्णता की मुस्कान तैरने लगी। परिणाम सुखद रहा। इस प्रकार युगलों ने अकर्मयुग से कर्मयुग में प्रवेश किया।
इस अमूल्य वाणी ने फूंका, अभय और पौरूष का मंत्र। हाथ और आजीव मध्य में, आस्थापित जीवन का तंत्र । उसका फल पहना धरती ने, प्रवर हरित शाटी परिधान। अतिक्रांत भय आज भूख का, सबके होठों पर मुस्कान। ऋ.पृ.-70
राजा का प्रथम दायित्व है राज्य की सुदृढ़ व्यवस्था करते हुए नागरिकों की समस्याओं का समाधान करना। ऋषभ ने राज्य व्यवस्था के संचालन हेतु उग्र भोज, राजन्य एवं क्षत्रिय श्रेणी का गठन कर लोककल्याणकारी राज्य की नींव रखी। यहाँ कवि ने ऋषभ की सुदृढ़ राज्य व्यवस्था के माध्यम से वर्तमान राज्य व्यवस्था समक्ष यक्ष प्रश्न खड़ा किया है .... साथ ही राजा में क्या गुण होने चाहिए, इसकी विशद व्याख्या की है। यदि राजा, प्रजा को आजीविका के साधन उपलब्ध करने में समर्थ नहीं होता और न ही जनकल्याणकारी योजनाएं लागू करता है। तो वह राजा, प्रजा के लिए पीड़ादायक और राज्य के लिए भार स्वरूप होता है। वर्तमान संदर्भ में निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रासंगिक हैं :--
जनहित साधन में न निरत है केवल ढोता पद का भार
वह क्या राजा, वह क्या नेता
उससे पीड़ित है संसार
जनता से अधिकार प्राप्त कर नहीं कभी करता उपकार
ऋ.पृ.-71.
स्वच्छ प्रशासन का सूत्रपात राजा द्वारा तभी किया जा सकता है जब वह स्वयं अनुशासित हो। बिना अनुशासन के प्रशासन शोषक, उच्छृखल एवं निरंकुश होता है, जिससे जनता उपेक्षित एवं पीड़ित रहती है। ऋषभ का शासन
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