________________
जुगुप्सा
'किसी दोष युक्त वस्तु को देखने, सुनने, स्मरण अथवा स्पर्श से चित्त मे जो किंचित घृणा का भाव उत्पन्न होता है, उसे 'जुगुप्सा' कहते है'1) शोषण के सम्बन्ध में कवि ने इस भाव का नियोजन किया है। दूसरे का शोषण कर स्वयं के पोषण में रत व्यक्ति का कर्म घृणास्पद एवं त्याज्य होता है। शोषण की इस जुगुप्सा व्यंजक वृत्ति को वृक्षों के शोषण में रत 'अमरबेल' 'वानस्पतिक बिम्ब' से प्रस्तुत किया गया है
अमरबेल ने आरोहण कर, किया वृक्ष का शोष, वह कैसा प्राणी जो करता, पर शोषण निज पोष। कितना हाय जुगुप्सित कर्म, लज्जित हो जाती है शर्म।
ऋ.पृ.80
युध्यस्थल में लोगो के लहू से तृप्त होने वाली 'समरदेवी के बिम्ब से मानव की घृणास्पद वृत्ति ‘कूरता' का अंकन किया गया है। युध्द मे रक्तरंजित यह भूमि जो वस्तुतः सभी प्राणियो का भरण पोषण करती है क्या वह अपने अहं की संतुष्टि के उद्देश्य से युध्द को आमंत्रण देने वाले मनुष्य पर कभी प्रसन्न हो सकती है ?
तृप्त होती समर देवी, प्राण का बलिदान ले, वह समर कैसे मनुज को, प्राण का आयाम दे। निज अहं को पुष्ट करने, की महेच्छा युध्द है। रक्त-रंजित भूमि नर की, क्रूरता पर क्रुध्द है।
ऋ.पृ.220
ऋषभायण में सीमित रूप में ही जुगुप्सापरक बिम्ब निर्मित हुए हैं।
--00--
10.
रति
ऋषभायण में रति भाव से संबंधित एकाध बिम्ब ही मिलते हैं। चूँकि इस महाकाव्य के रचयिता एक महान साधक है, इसलिए रति विषयक बिम्बों में उनका मन रंचमात्र भी नहीं रमा है, फिर भी प्रकृति के आगोश में एक वियोग रति विषयक
| 259