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अधिक होता है। चूंकि पुत्र पिता की अनुकृति होता है इसलिए पुत्र की झलक पौत्र में सहज ही दिखाई देती हैं। माँ मरूदेवा पुत्र वियोग से व्यथित होते हुए भी इसलिए विचलित नहीं हो पाती क्योंकि भरत सरीखे पौत्र उनकी नेत्रों के समक्ष हैं। वे ऋषभ के प्रति अपनी चिन्ता को उचित न मानती हुई वात्सल्य भाव से परिपूर्ण परिवार के कल्याणार्थ भरत को आशीष देती हैं, जिससे भरत के हृदयाकाश में अह्लाद के बादल उमड़ने घुमड़ने लगते हैं -
उचित नहीं है मेरी चिंता, भरत तुम्हारे सिर पर हो। वत्स ! तुम्हारा मन मंगलमय, सुखमय घर का परिकर हो।। ऋ.पृ. 149
युद्ध स्थल में सूर्ययशा के प्रति बाहुबली के वात्सल्य भाव को निम्नलिखित उदाहरण में देखा जा सकता है जिसमें शस्त्र को 'कोमल धागा' के बिम्ब से चित्रित
किया गया है -
उभर रहा है प्रेम नयन में, कर में है प्रियता का रक्त।
शस्त्र बना है कोमल धागा, हो जाओ सहसा अव्यक्त ।
ऋ.प. 266
इस प्रकार ऋषभायण में वास्सल्य परक पर्याप्त बिम्बों की योजना की
गई है।
शोक -
इष्ट की हानि से जो वेदनानुभूति होती है उसे शोक कहते हैं। शोक की यह स्थिति विविध स्तरों पर होती है। किसी प्रिय की मृत्यु, विदाई अथवा किसी अनिष्ट की आंशका से हृदय व्याकुल हो जाता है, आँखे नम हो जाती हैं और मुख की आभा निष्प्रभ हो जाती है। शोक के चरम उत्कर्ष पर व्यक्ति की मृत्यु भी हो जाती है। 'ऋषभायण' में ऋषभ के राज्य त्याग के संकल्प से सुदृढ़ जनों में उत्पन्न वियोग जन्य शोक, पिता के दर्शन से वंचित बाहुबली का करूण विलाप, गिरिजनों की करूण पुकार आदि दृश्यों में शोक भाव के बिम्ब मिलते हैं। पिता ऋषभ जब संयम पथ पर गमन की बात करते है, तब भरत का मन आकुल हो उठता है, उनके
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