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बालपन में ऋषभ द्वारा अंगुष्ठपान की क्रिया को 'अमृत' आस्वाद बिम्ब से प्रस्तुत कर उसे पुष्टिकारक बताया गया । यहाँ बालक के अंगुष्ठपान में अनुभाव परक बिम्ब उभरा है
मिला अमृत अंगुष्ठपान में, अति पोषक आहार बना ।
ऋ. पृ. 37
शिशु की स्वाभाविक क्रिया है धूल में खेलना अथवा शरीर पर धूल लपेट लेना । शिशु ऋषभ भी हम उम्र साथियों के साथ खेलते हुए धूलि - धूसरित हो जातें हैं, जिससे बरबस ही युगलों का मनमोहित हो जाता है
सवयस युगल कुमारों को ले, क्रीड़ा का प्रारम्भ किया । धूली- धूसर कांत देह ने, युगलों का मन मोह लिया । ।
ऋ. पृ. 37
माँ पुत्र को कभी विस्मृत नहीं करती । वियोग काल में भी पुत्र के संयोग की यादें माँ के हृदय में हमेशा बनी रहती हैं। ऋषभ जब भोजन करने लगते थे तब माँ मरूदेवा अपनी ममता के रस से उनका अभिसिंचन किया करती थीं । प्रकृति पवन के द्वारा उन्हें शीतलता प्रदान तो करती ही थी, मां भी पंखा झलना नहीं भूलती थी। माता के द्वारा पुत्र ऋषभ को भोजन परोसना, भोजन कराना, पंखा झलना आदि आनुभाविक क्रियाएं माँ मरूदेवा के वात्सल्य भाव का सजीव बिम्ब प्रस्तुत करती हैं
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याद आ रहे हैं वे वासर, भोजन स्वयं कराती थी । अपने हाथों से परोसती, मैं दीपक, मैं बाती थी । भोजन का रस, माँ की ममता, का रस दोनों मिल जाते । पवन प्रकृति का, पवन पंख का दोनों मन को सहलाते ।
ऋ. पृ. 148
माता के सम्मुख पुत्र हो, और पुत्र की लीलाएँ हों तो वह क्षण बहुत ही दुर्लभ होता है । कवि अपत्य स्नेह से परिपूर्ण माँ मरूदेवा के हर्षातिरेक को उमंग में थिरकती हुयी 'मीनाक्षी' के बिम्ब से प्रस्तुत किया है । पुत्र वियोग में व्यथित माँ मरूदेवा संयोग काल की बातें याद कर भरत से कहती हैं
कितना था वह रसमय जीवन, भरत ! स्वयं तुम साक्षी हो । रस पल्लव इठलाते मानो, थिरक रहीं मीनाक्षी हो ।
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ऋ.पृ. 148