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________________ ‘अनासक्ति' वीतरागता का मूल मंत्र है। अनासक्ति की साधना को शुक्ल पक्ष के 'चन्द्र', 'जलज' एवं 'रवि' के बिम्ब से निरूपित किया गया है । यह ज्ञातव्य ध्यातव्य है कि जहाँ अनासक्ति है, वहीं निर्वेद भाव है । ऋषभ भरत को उपदेश देते हुए कहते हैं - अनासक्ति की प्रवर साधना, बढ़े शुक्ल का जैसे चन्द्र । जल से ऊपर जलज निरन्तर, रवि रहता नभ में निस्तंद्र । ऋ. पृ. 298 अनासक्ति भाव के जागरण पर मन निर्मल हो जाता है । साधना की ओर अग्रसर आसक्ति भाव से परे भरत के मन की निर्मलता को शुष्क भित्ति पर शुष्क धूल के उपलेप न होने के बिम्ब से निर्वेद भाव को प्रस्तुत किया गया है 3. शुष्क भित्ति पर शुष्क धूलि का, कभी नहीं होता उपलेप । भरतेश्वर के मनःपटल पर, नहीं रहा कोई विक्षेप । ऋ. पू. 299 इस प्रकार ऋषभायण में 'निर्वेद' भाव को विस्तार देते हुए कवि ने उपयुक्त बिम्बों का चयन किया है। वात्सल्य : आचार्य महाप्रज्ञ ने वात्सल्य भाव से संबंधित अनेक बिम्ब रचे हैं। ऋषभायण में वात्सल्य भाव के दोनों पक्षों - संयोग और वियोग का बिम्बांकन हुआ है । शिशु रूप में उनके शरीर की कांति स्वर्ण एवं उसकी सुगंधि को 'कमल' के बिम्ब से निरूपित किया गया है I - अद्भुत रूप हिरण्यकांति तनु, स्वेद - मैल का लेश नहीं । आनापान अब्जवत् सुरभित, आकृति यह संक्लेश नहीं । ऋ. पृ. 36 बालक ऋषभ की मृदु मुस्कान के लिए अप्रत्यक्ष रूप से 'सुमन' का बिम्ब प्रस्तुत किया गया है किन्तु सुमनों, में प्रतिस्पर्धा भाव की जागृति से ऋषभ के कोमल मुस्कान की श्रेष्ठता व्यंजित हुई है। मृदु मुस्कान निहार, सुमन में, प्रतिस्पर्धा का भाव जगा । 245 ऋ. पृ. 37
SR No.009387
Book TitleRushabhayan me Bimb Yojna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilanand Nahar
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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