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माँ मरूदेवा आत्मस्थ ऋषभ की ओर अपलक देखते हुए यह महसूस करती है कि वीतरागता में मन की तल्लीनता से ध्येय और ध्याता में कोई भेद नहीं रह जाता। साधना के इस गहन रहस्य को समझ मरूदेवा पल भर में 'चिन्मय' परम आत्मा की अनुभूति कर लेती है । निम्नलिखित संपूर्ण पंक्तियाँ निर्वेद भाव से मण्डित हैं, जिसमें वीतरागता से सम्बन्धित सूक्ष्म रहस्यों की ओर संकेत किया गया है
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देख रही हूँ मैं तो अपलक, वहअपने में है तल्लीन । माता का मन ममता - संकुल, उदासीन सुत नहीं नवीन । हंत ! मोहमय चिंतन मेरा, यह निर्मोह विरत आत्मज्ञ । वीतरागता में मन तन्मय, सदा सफल होता मंत्रज्ञ । तन्मयता से मिट जाता है, ध्येय और ध्याता का भेद । साध लिया पल में माता ने, चिन्मय से अनुभूति अभेद ।
ऋ.पू. 155 जहाँ नींद और मूर्च्छा के बिम्ब से माया मोह में लीन माँ मरूदेवा स्वयं को धिक्कारती हुयी प्रतीत होती हैं, वहीं वे आत्मज्ञान की जागृति को 'वसंत' के दृश्य से भी अंकित करती हैं । माया, मोह के विलोपन के पश्चात् ही चैतन्यान्मा का जागरण होता है । स्वयं के बोधन में मरूदेवा का निर्वेदभाव स्पष्टतः मुखरित हुआ
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मरूदेवा! तू जाग जाग री ! रही सुप्त तू काल अनन्त । नींद गहनतम, गहरी मूर्च्छा, आओ पहली बार वसंत!
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ऋ. पृ. 155 नौवें सर्ग में माँ मरूदेवा के प्रसंग में कवि ने निर्वेद भाव से संबंधित कतिपय बिम्बों को प्रस्तुत किया है। मुनि ऋषभ का अवलोकन करने के पश्चात् मरूदेवा सिद्धि सोपान पर कदम रखती हुई माया मोह के जाल एवं शरीर के बन्ध न से मुक्त हो आत्म सत्ता में लीन हो जाती हैं । यहाँ शारीरिक बंधन को 'बंध जाल' तथा 'माया मोह के बंधन को' 'मकड़ी के जाला' के बिम्ब से प्रस्तुत किया गया है
अप्रकम्प अवस्था में मां, बंध- जाल से हुई विमुक्त
अब न बनेगी मकड़ी जाला, निज सत्ता में नियत नियुक्त । ऋ. पृ. 156
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