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चिदाकाश में चिन्मय रवि का, व्याप्त हुआ अविराम प्रकाश। समता में दीक्षित सुतगण की, शांत हो गयी पल में प्यास ।। ऋ.पृ. 207
इसी बिम्ब का नियोजन साधनारत आत्मलोक में विचरण कर रहे ऋषभ के लिए भी किया गया है। धर्म रूपी 'आकाश' में 'ऋषभ' रूपी 'रवि' के अभ्युदय से जैसे परमपद रूपी परमात्मा का अवतरण हो गया हों। साधना अवस्था में ध्यान, कायोत्सर्ग की मुद्रा, विचारहीनता, आभामंडल की दिव्यता, अन्तर्रात्मा की शांति आदि दृश्यों से ऋषभ में ऐसे ऋषि रूप का बिम्बांकन किया गया है जो तत्व ज्ञान की खोज में लीन हो -
धर्म के आकाश में, रवि का नवोदय हो रहा। जागरण उस परम पद का, आज तक जो सो रहा। ध्यान कायोत्सर्ग मुद्रा, मौन अन्तर्व्याप्त है। दिव्य आभा दिव्य आत्मा, लग रहा वह आप्त है। दिवस बीते जा रहे वह, अग अचल अश्रान्त है। भूख की जय, प्यास की जय, अन्तरात्मा शान्त है।
ऋ.पृ. 110
'दीक्षा' 'निर्वेद भाव' को मधुमय उपहार से व्यंजित कर उसके महत्व का प्रतिपादन किया गया है। संसार की असारता का ज्ञान हो जाने पर मन सन्यास की ओर उन्मुख होता है, जिसके लिए 'मुनि दीक्षा' परम आवश्यक है। सिद्धावस्था को प्राप्त ऋषभ के आभामण्डल को देखकर मां मरूदेवा उसे जीवन का 'मधुमय उपहार' कहती है -
इतने दिन मैंने तो ढोया, अर्थहीन चिन्ता का भार। आकृति बोल रही है, दीक्षा, कष्ट नहीं, मधुमय उपहार। ऋ.पृ. 155
साधना की अंतिम अवस्था कैवल्य है। कैवल्य को 'अमृत-कलश' एवं सांसारिक जीवन की क्षणिकता को 'इन्द्रधनुष' के बिम्ब से व्यंजित किया गया है -
उदित हुआ वर केवल ज्ञान, कलश अमृत का अमृत-पिधान हो सकता सर्वज्ञ मनुष्य, शेष जीवन हैं इन्द्रधनुष।। ऋ.पृ. 145
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