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- आत्मलीनता के मंदिर में, बाहर का विस्मरण हुआ ।
• आत्मा में परमात्मा का, अनजाना-सा अवतरण हुआ ।
ऋ. पृ. 115 शरीर नश्वर है, आत्मा अनश्वर शरीर जन्म और मृत्यु के बंधनों से बंधा होता है किंतु आत्मा अजन्मा है । उसका विनाश नहीं होता । वह शाश्वत् है, सर्वकालिक हैं । यहाँ 'विदेह' के लिए कवि ने अनन्त, अजन्मा शब्द का प्रयोग कर उसकी शाश्वता को 'अमृत' के बिम्ब से प्रस्तुत किया है
देह और विदेह तत्व दो, नश्वर देह अनन्त विदेह | देह जनमता, मरता है वह अमृत अजन्मा सदा विदेह ।
ऋ. पू. 157
शरीर व्यक्ति को संसार से जोड़ता है । 'आत्मा' उसे संसार से मुक्त करता है। आत्मा की यह मुक्तावस्था निर्वेद जन्य स्थितियाँ निर्मित करती हैं, इसीलिए आत्मा परमात्मा का उपादान है और इसलिए उसका स्वरूप मंगलकारी है । यहाँ सत्यं शिवम् सुन्दरम् की अलौकिक धारणा से 'आत्मस्वरूप' का बिम्ब उद्घाटित किया गया है
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आत्मा सत्यम् शिवम् सुन्दरम् आत्मा मंगलमय अभिधान उपादान है परमात्मा का, संयम है उसका अवदान ।
ऋ. पृ. 158 वस्तुतः प्राण और अपान दोनों पुद्गल हैं, इसलिए नश्वर हैं, जीवनधार पुद्गल है आत्मा अपौद्गलिक है। शरीर में आत्मा की खोज 'दीक्षा' संस्कार से संभव है। दीक्षा संस्कार एक भावनात्मक स्थिति है, जो संसार से विरक्त निर्वेद भाव का बिम्बांकन करती है
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प्राणापान पौद्गलिक दोनों, पुदगल जीवन का आधार । उसमें आत्मा का अन्वेषण, करना यह दीक्षा संस्कार ।
ऋ. पृ. 206
'आकाश' एवं 'रवि' की दृश्यता से साधनात्मक अवस्था का चित्रण मनोहारी है। समत्व भाव से दीक्षित ऋषभ के अट्ठानबे पुत्रों के चित्तरूपी आकाश में चिन्मय 'रवि' रूपी आत्मप्रकाश से माया मोह की प्यास पलभर में ही शांत हो गयी । निम्नलिखित संपूर्ण पंक्तियाँ निर्वेदभाव से मंडित हैं
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