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.. परिपूर्ण थाल से कर रहा है, तो कोई भक्तिमय मंगल स्तवन का गायन कर अपनी
भावना प्रकट कर रहा है -
थाल मुक्ता से भरा, उपहार कोई ला रहा। भक्तिभावित भाव कोई, स्तवन-मंगल गा रहा।
ऋ.पृ. 118
ऋषभावतार विश्व कल्याण के लिए हुआ है। उनके चरणों में मात्र युगलों की ही आसक्ति नहीं है, बल्कि शत शहस्त्रों लोक के अधिपति भी उनके प्रति पूजाभाव रखते हैं। मुनिदीक्षा के समय विविध लोकों के अधिपतियों का नतमस्तक हो उनसे कर बद्ध प्रार्थना करना उनकी भक्तिभावना का ही प्रदर्शन है -
शत सहस्त्रों लोक प्रभु के, सामने आ रूक गए बद्ध अंजलि भाव प्रांजल शीश सबके झुक गए।
ऋ.पृ. 94
इस प्रकार उक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि आचार्य महाप्रज्ञ ने भक्ति के संबंध में विविध बिम्बों का निर्माण किया है।
2.
निर्वेद (शम) -
'निर्वेद' शब्द का अर्थ है 'विशेषज्ञान' । संसार की वस्तुओं की अनित्यता देखकर हृदय में उन वस्तुओं के प्रति जो निन्दाबुद्धि उत्पन्न होती है, उसे निर्वेद कहते हैं। 'शम' की अर्थ शान्ति है। सांसरिक अशान्ति से खिन्न होकर जब मन परमार्थ की ओर झुककर शान्ति-प्राप्ति का इच्छुक हो तो 'शम' होता है। (१)
प्रवृत्त मार्ग एवं निवृत्त मार्ग उपासना की दो पद्धतियाँ हैं। प्रवृत्तिमार्गी उपासना के अंतर्गत भक्तिभाव तथा 'निवृत्तिमार्गी' उपासना के अंतर्गत निर्वेद भाव का प्रकाट्य होता है। जैन धर्म विशुद्धतः आत्मदर्शन को महत्व देता है। तत्वज्ञान उसका मूल स्वर है। आचार्य महाप्रज्ञ ने 'ऋषभायण' में भक्ति और निर्वेद भाव का अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया है। ऋषभ के प्रति लोगों के समर्पण भाव भक्ति परक हैं तो ऋषभ के तात्विक भाव निर्वेद परक। रूप की दृष्टि से ऋषभायण का मूल काम्य निर्वेद है। 'निर्वेद' जन्य बिम्बों को ऋषभ की आत्मसाधना, माँ मरूदेवा
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