________________
कितने सपने, कितने भाव!, कितने चिंतन का अनुभाव! कौन सुनेगा ? दीनदयालु!, मुझ पर थे तुम सदा कृपालु। ऋ.पृ. 138
श्रद्धा समन्वित भक्ति का उद्घाटन 'अपलक दृष्टि' के बिम्ब से भी किया गया है। आभामण्डल से देदीप्यमान ऋषभ के हस्तिनापुर आगमन पर परिवार के सभी सदस्यों का मस्तक उनके कमलवत् चरणों में झुक जाता है, और वे सभी अपलक दृष्टि से उसे इस प्रकार देखने लगते हैं, जैसे मुक्तिदाता के चरणों में शरणागत पलकों ने उस ओर एक टक देखने का व्रत ले लिया हो -
आ गया परिवार परिवृत्त, ऋषभ सन्निधि में रूका, चरण सरजित पुष्प रज में, शीर्ष श्रद्धा से झुका, नयन सुस्थिर पलक ने, अनिमेष दीक्षा व्रत लिया
मक्तिदाता के शरण में क्या निमीलन की किया।
ऋ.पृ.128-129
ऋषभ परिवार के ही नहीं संपूर्ण समाज के जीवनाधार हैं। सिद्धि के पश्चात् जब वे हस्तिनापुर आते हैं तब उन्हें देखने मात्र से ही लोगों के हृदय में भक्ति का झरना प्रवाहित होने लगता है। 'कल्पतरू' के रूप में ऋषभ को अपने समक्ष देखकर जन सामान्य अपने को धन्य समझते है। यहाँ ऋषभ के प्रति 'कल्पतरू' का बिम्ब चित्ताकर्षक है -
भावना का विमल निर्झर, जन-मनस में बह चला। कल्पतरू मनहर अकल्पित, आज प्रांगण में फला। ऋ.पृ. 127
'चिंतामणि' रत्नीय बिम्ब से सभी की चिन्ताओं को हरने वाले ऋषभ के प्रति जन-जन की दृष्टिकोण उनकी भक्ति का सूचक है -
धन्य है हम रत्न, चिंतामणि अहो प्रत्यक्ष है, यह प्रतीक्षा में खड़ा, जैसे सुसज्जित कक्ष है।
ऋ.पृ. 127
ऋषभ के उपदेश से अविभूत जनप्रतिनिधि द्वारा उनके चरणों की शरण में रहने की आकांक्षा तथा उसे सत्यं, शिवं, सुन्दरम् कहना उनके भक्तवत्सल स्वभाव का ही बिम्ब प्रस्तुत करता है -