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________________ सुन्दर है वह जहाँ ऋषभ है, भले नगर या वन हो। चातक की आशा है भोर, शशधर में अनुरक्त चकोर। ऋ.पृ. 85 पितृविहीन राज्य सिंहासन को भरत रंचमात्र महत्व नहीं देते । वे तो राज्य को 'भूसी' (तुषा) तथा ऋषभ को 'धान्य' कहते हुए उन्हें करूणा के अवतार 'बादल' के रूप में देखते हैं - शिरोधार्य वाणी प्रभुवर की, किन्तु न मन को मान्य लगता है यह राज्य तुषोपम, दूर हो रहा धान्य बरसो-बरसो अब पर्जन्य!, हो जाए अन्तस्तल धन्य। ऋ.पृ. 86 'गुरू' के प्रति भक्तिभाव से समर्पित 'शिष्य' के बिम्ब से चक्ररत्न के प्रति भरत की भक्तिभावना का प्रकाशन कवि ने प्रभावशाली ढंग से किया है। आयुध शाला में पूजाभाव से भरत चक्ररत्न की त्रिप्रदक्षिणा वैसे ही करते हैं जैसे भक्ति से सराबोर नतमस्तक शिष्य अपने गुरू की प्रदक्षिणा करता है - नृपति भरत अर्चा करने को पहुँचा आयुध शाला चक्ररत्न की दिव्य विभा तब, दमकी बन नव बाला, त्रिःप्रदक्षिणा की, जैसे नत, शिष्य सुगुरू को करता शक्ति परम गुरू की गुरू होती, निर्झर गिरि से झरता। ऋ.पृ. 163 तक्षशिला में प्रभु का दर्शन न हो पाने के कारण बाहुबली का मानसिक संताप उनकी भक्ति भावना का प्रमाण है। प्रभु आगमन की सूचना मात्र से बाहुबली की वंदन मुद्रा, साष्टांग प्रणाम की स्थिति उनकी श्रद्धा, भक्ति का ही बिम्बांकन करती है - वंदन-मुद्रा नत पंचांग, श्रद्धा से सिंचित सर्वांग। प्रासादस्थित मैं हूँ देव ! तत्र स्थित देखो स्वयमेव ।। ऋ.पृ. 137 भक्त के लिए भगवान की दूरी पीड़ादायक होती है। वह तो अपने इष्ट के बिना व्याकुल व अशांत बना रहता है। बाहुबली द्वारा ऋषभ के प्रति 'दीन दयालु' और 'कृपालु' का सम्बोधन पितृभक्ति का ही चित्र अंकित करता है - 12271
SR No.009387
Book TitleRushabhayan me Bimb Yojna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilanand Nahar
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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