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सुख की सरिता में सारे जन, है आकंठ निमम्न
नव रस में श्रृंगार प्रथम रस, रज कण पद संलग्न पवनेरित पर्वों में लास्य, प्रस्फुट पुष्प-प्रकर में हास्य ।
ऋ. पृ. 79 तक्षशिला के उद्यान की मनोहरता, साधना में रत ऋषभ की स्थिति तथा आत्मा के स्वरूप का चित्रण भी संश्लिष्ट रूप में किया गया है। समवसरण में आत्मस्थ ऋषभ प्रतिमा सदृश्य आत्मसाधना में लीन हैं। आत्मा का स्वरूप विराट भी है लघु भी है। यहाँ आत्मा की विराटता के लिए 'सागर' तथा उसकी लघुत के लिए 'मीन' का बिम्ब प्रयुक्त हुआ है । 'मीन' का आश्रयण 'सागर' है । सागर से मीन की विलगता जीवन की शून्यता है और सागर से मीन की एकरूपता आत्मा से आत्मा का चिर संबंध है। निम्न उदाहरण में वाटिका की दृश्यता ऋषभ की साधनात्मक स्थिति तथा आत्मा के सूक्ष्म रूप का स्थूल मूर्त्तन देखने योग्य है
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हरित वाटिका वृत उद्यान, उज्जवल आभा तरु अम्लान, ऋषभ समवसृत प्रतिमालीन, आत्मा अर्णव आत्मा मीन ।
ऋ. पृ. 137
कवि ने अदर्शन से अनुतप्त मनोदशा का अंकन भी किया है। पितृदर्शन से वंचित बाहुबली के मन के अनुताप का 'उबाल' उष्णता की अनुभूति से पूर्ण है, तो सचिव की मृदुवाणी कोमलता से । यदि पितृ दर्शन की प्यास में अदर्शन की आकुलता समाहित है तो उनके अधैर्यजन्य चिंतन में वातूल का दृश्य भी गोचर होता हैं । इस प्रकार बाहुबली के करूण विलाप में ध्वनि बिम्ब, मन के अनुताप के उबाल तथा सचिव की मृदुवाणी में स्पर्श्य व चिंतन के वातूल में गतिज बिम्ब के सहप्रयोग से संश्लिष्ट बिम्ब की योजना हुई हैं ।
बाहुबली का करूण विलाप, उबल रहा मन का अनुताप, बोला मृदु वच सचिव सुधीर, क्यों प्रभु इतने आज अधीर ? तक्षशिला में प्रभु आवास, चिंतन बुझी नहीं दर्शन की प्यास यही वेदना का है मूल, चिंतन का उठता वातूल ।
ऋ. पृ. 139 कहीं-कहीं कवि ने एक ही भाव दशा के लिए अलग-अलग उपमानों का बिम्बप प्रस्तुत किया है। उद्यान से प्रस्थान कर चुके ऋषभ के लिए 'वैडूर्य' एवं
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