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की। राज्य व्यवस्था की इस विकेन्द्रित शासन पद्धति को गगनखण्ड में फैले हुए बादलों के बिम्ब से प्रस्तुत किया गया है -
सवया सम अधिकार प्राप्त जन, श्रेणी प्रज्ञापित 'राजन्य' बनी विकेन्द्रित शासन-पद्धति, गगनखण्ड में ज्यों पर्जन्य। ऋ.पृ. 70
अतिक्रमण के लिए 'लहर' का बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। अभाव से ग्रस्त युगलों के अतिक्रमण का बिम्बाकंन काम वासना से उद्वेलित उस व्यक्ति से किया गया है जो संपूर्ण सामाजिक मर्यादाओं का उल्लघंन करने में संचमात्र संकोच नहीं
करता।
अतिक्रमण का दौर चला अति, टूट गया संचित संभाग। कामवीचि से उद्वेलित जन, देता ज्यों लज्जा को त्याग।। ऋ.पृ. 27
जन्म और मृत्यु का आरेखन सागर में उठती मिटती लहर तथा 'जलती-बुझती' बाती से किया गया है
लहर सिंधु में उठती-मिटती, फिर उठती फिर मिट जाती। जन्म-मृत्यु की यही कहानी, जलती-बुझती है बाती। ऋ.पृ. 42
असमय मृत्यु की संत्रासमयी संवेदना से प्रभावित मनःस्थिति का उद्घाटन भी कवि ने संवेद्य वनस्पति 'छुई मुई' के बिम्ब से किया है। नरशिशु की असामयिक मृत्यु को देखकर उसके मातापिता की मनो दशा वैसे ही हो गयी जैसे स्पर्शमात्र से 'छुईमुई कुम्हला जाती है -
काल मृत्यु से परिचित था युग, असमय मृत्यु कभी न हुई, प्रश्न रहा होगा असमाहित, बनी मनःस्थिति छुई मुई। ऋ.पृ. 41
मृत्यु के लिए 'निद्रा' का बिम्ब सहज ही प्रयुक्त हुआ है। मृत्यु की चिरनिद्रा में सोए हुए अपने भाई को छोड़कर सुनन्दा कभी न मिल पाने की व्यथा से उस स्थान से अन्यत्र जाना नहीं चाहती -
चलो सुनन्दा ! कहा युगल ने, बोली, कैसे जाएँगे ? भाई निद्रा की मुद्रा में, फिर न कहीं मिल पाएँगे ?
ऋ.पृ. 41
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