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सत्य इतना ही नहीं, जितना कि मैं हूँ मानता व्योम इतना ही नहीं, जितना कि मैं हूँ जानता यह असीम इसे न अपने, सदन तक सीमित करो पर सदन में भी गगन है, सत्य को स्वीकृत करो। ऋ.पृ.-304
प्राचीन आचार्यों ने महाकाव्य संबंधी आकलन में जो लक्षण बताएँ हैं, वे बाह्य स्वरूप हैं, जहाँ रसों की चर्चा की गयी है वहाँ आन्तरिक विशेषताओं पर अवश्य प्रकाश पड़ता है, जिसकी योजना महाकाव्य में अनिवार्य है, किंतु शेष लक्षणों का अक्षरशः उसी रूप में पालन संभव नहीं है। साहित्य इसका साक्षी है कि सत्रहवीं शती में रामचंद्र दीक्षित ने 'पंतजलि चरित' की रचना की है जिसके नायक पंतजलि मुनि है। कालिदास के 'रघुवंश' और क्षेमेन्द्र के 'दशावतार चरित' में कितने ही नायक हैं। श्री हर्ष के 'नैषध' में नल दमयंती का पूर्ण जीवन नही चित्रित किया गया है और भतृमेण्ट का 'हयग्रीव' वध ऐसा महाकाव्य है जिसमें नायक तो भगवान विष्णु हैं, किन्तु प्रतिनायक हयग्रीव का चरित्र ही प्रधान हो गया है। बंगाल के प्रसिद्ध कवि माइकेल मधुसूदन दत्त का 'मेघनाद' वध भी इसी प्रकार की रचना है। इन सब प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि कितने ही कवियों ने आचार्यों द्वारा निर्धारित लक्षणों का अक्षरशः पालन नहीं किया है। (१)
आज प्रबंध काव्य जीवन की व्याख्या नहीं करता, जीवन को व्यक्त करता है। जिससे उसका महत्व और बढ़ जाता है वास्तविकता यह है, कि समय के साथ महाकाव्य का रूप कहीं अन्य काव्यों की तुलना में तेजी से बदल रहा है। कवि व्यवहारिक अथवा कल्पना के धरातल पर ऐसे पात्रों को गढ़ता है, जिनका आदर्श व्यवहार, कार्य और चरित्र प्रत्यक्षतः समाज को प्रभावित करता है। इसलिए कुछ मान्य लक्षणों के आधार पर ही किसी महाकाव्य का मल्यांकन करना उचित प्रतीत नहीं होता। उसका मूल्यांकन तो उसकी प्रभावान्विति पर होनी चाहिए। ऋषभायण में जीवन की सच्ची अभिव्यक्ति हुयी है, लोक में अलोक का जागरण हुआ है, फूल में सुगंध की तरह। इस संदर्भ में डॉ. शम्भूनाथ सिंह की मान्यता प्रभाव की दृष्टि से ज्यादा महत्व की जान पड़ती है। उसके अनुसार महाकाव्य वह छन्दोबद्ध कथात्मक काव्य रूप है जिसमें छिप्र कथा प्रवाह या अलंकृत वर्णन