________________ अन्तर्मानस की उंगली से, हृत् तंत्री का तार। झंकृत हो कर देता अभिनव, मंजुलतम झंकार। धरती अंबर सहज समीप, जलता है जब चिन्मय दीप। ऋ.पृ.-91. प्राकृतिक उपादानों में 'पवन' एवं 'पल्लव' अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। 'पवन' की ध्वनि तथा उसके स्पर्श से 'पल्लव' की ध्वनि संपूर्ण वातावरण को जीवन्त करती है। यहाँ पवन एवं पल्लव की ध्वन्यात्मकता क्रमशः संगीत एवं शहनाई के बिम्ब से जहां प्रभावशाली बन गई है, वहीं संगीत के प्रति कवि की रूझान का भी पता चलता है : सुरभि-पवन संगीत गा रहा, पल्लव-रव की शहनाई। किंशुक कुंकुम रूप हो गया, पुष्पों ने ली अंगड़ाई। ऋ.पृ.-35. ऋषभायण में 'झिल्ली' जैसे अंधेरा प्रिय कीट का भी ध्वनि रूप में बिम्बाकंन किया गया है। रात्रि के समय झिल्ली की झीं-झी की ध्वनि से पूरा परिवेश अभिकंपित सा हो जाता है। उसकी ध्वनि में उच्चता सहित इतनी प्रखरता होती है कि वह रात्रि भर गूंजती रहती है। यहाँ झिल्ली रव का विस्तार सहज और स्वाभाविक रूप से दृष्टव्य है :-- उद्योतित खद्योत चमक से, तरू का किसलय-पत्र। झिंगुर की ध्वनि से अभिकंपित, बीता रजनी-सत्र। ऋ.पृ.-77. उक्त ध्वनि बिम्बों के अतिरिक्त सागर, लहर एवं निर्झर का ध्वनि परक चित्रण भी कवि द्वारा किया गया है। चंद्रमा के आकर्षण से समुद्र में गगनचुम्बिनी लहरें उठती हैं जिसके कारण कोलाहल ही कोलाहल सुनाई देने लगता है। यहाँ चन्द्रमा के आकर्षण से 'सागर' की 'कोलाहल' ध्वनि को व्यक्त किया गया है :-- चन्द्रमा आकाश में, प्रतिबिम्बि सागर ले रहा, तुमुल कोलाहल प्रसृत, संकेत अपना दे रहा। ऋ.पृ.-128. ऋषभ अवतार के पूर्व माँ मरूदेवा के स्वप्न दर्शन के पश्चात् उनके हर्षभाव की अभिव्यक्ति समन्दर के अन्तस्तल से उठी हुयी गगनचुम्बिनी उत्ताल |187