________________ * काव्य में वर्णों की आनुप्रासिक संगति से भी नादात्मक सौंदर्य का सृजन होता है। लगता है आचार्य महाप्रज्ञ का कवि मन अनुप्रासों की छटा बिखरने में अधिक रमा है। सम्पूर्ण महाकाव्य में सजातीय अथवा समान वर्णों का प्रयोग अधिक किया गया है, जिससे वर्णों अथवा शब्दों से सहज ही ध्वन्यात्मकता प्रकट होती है, जैसे : जेठ मास की तपी दुपहरी, तप्त धूलि धरती भी तप्त, तप्त पवन का तपा हुआ तन, मन कैसे हो तदा अतप्त ? ऋ.पृ.-198. ऋ.पृ.-80. क्रीड़ा की कोमल कलियों में, अंकित सबका हाथ। ___+ + + लीलालीन ललित ललना की, पादाहति से रूष्ट / + + + सुख की सरिता में सारे जन, है आकंठ निमग्न। ऋ.पृ.-79. ऋ.पृ.-79. उक्त उदाहरणों में 'त', 'क', 'ल' और 'स' वर्गों के आधिक्य से वर्ण ध्वनि परिलक्षित होती है। शब्दों के अनुकरणात्मक प्रयोग से सार्थक ध्वनि बिम्बों का सृजन होता है। इसमें एक शब्द दुबारा प्रयुक्त होकर ध्वन्यार्थक रूप में अर्थ गांभीर्य का प्रकटीकरण करते हैं। ऋषभायण में पुनुरूक्त शब्दों की बहुलता से ध्वनि बिम्बों का विस्तार आसानी से देखा जा सकता है, जैसे : धन्य धन्य की अन्तर्वाणी, गूंज उठा सारा आकाश। ऋ.पृ.-160. + + + भाई भाई साथ रहे हैं, चक्षु चक्षु से परिचित पूर्ण। ऋ.पृ.-276. + + + अग्रज-अग्रज, अनुज-अनुज है, सत्य रहेगा कवि का सूक्त। ऋ.पृ.-274. उक्त उदाहरणों में पुनुरूक्त शब्द ध्वनि व्यंजक है। प्रथम उदाहरण में माँ मरूदेवा के मोक्ष के पश्चात् ऋषभ के उपदेश से अभिभूत जनमानसकी अन्तर्वाणी 11821