________________ शिल्प की मान्य धारणाओं से काफी अलग दिखती है अर्थात् वह बाह्य चमत्कारों से युक्त होकर कविता के लिए जो मूलभूत छवि होती है, उसी को संयोजित करना चाहती है। बिम्ब कविता की मूल छवि है। इसीलिए आज की कविता बिम्ब बहुला हो गयी है।"(134) कवि अपनी भावाभिव्यक्ति को गहन बनाने के लिए प्रतीकों का ही सहारा लेता है। प्रतीक सांकेतिक अर्थ के सहचर हैं इस काव्य में लाक्षणिकता के साथ अभिव्यक्ति में वक्रता भी आती है। कार्लईल ने लिखा है-"प्रतीकों में एक साथ ही गोपन और प्रकाशन की शक्ति रहती है जिससे मौन और वाणी के सहयोग से दुहरी अर्थ व्यंजना होती है। (135) केदारनाथ सिंह का कथन है कि प्रतीक स्वयं गौण होता है। मुख्यता उस दिशा की होती है जिधर वह संकेत करता है। बिम्ब से उसका यही मौलिक अंतर है। बिम्ब उठी हुई उंगली की तरह किसी एक ही दिशा में सदैव इंगित नहीं करता वह एक साथ कई स्तरों पर और कई दिशाओं में इंगित करता है। प्रतीक की तरह उस निज की सत्ता उस संकेत में विलीन नहीं हो जाती। बिम्ब प्रतीक की अपेक्षा अधिक स्वच्छंद और अनेकार्थ व्यंजक होता है |(136) लेविस ने प्रतीक में अंको की-सी निश्चितता मानी है। जैसे एक कहने से केवल एक संख्या का बोध होता है, दो अथवा पांच का नहीं, वैसे ही एक प्रतीक भी अनिवार्य रूप से केवल उसी भाव अथवा विचार का प्रतिनिधित्व करता है जिसके लिए वह लाया गया है / (137) अज्ञेय ने प्रतीकों को सत्यान्वेषण का साधन माना है। प्रतीकों द्वारा प्राप्त ज्ञान अन्य ज्ञान से भिन्न होता है। उनके अनुसार वैज्ञानिक सागर की गहराई नापने के लिए रस्सी डालता है या किरणों की प्रतिध्वनि का समय कूतता है, वह एक प्रकार का ज्ञान है। कवि प्रतीक के द्वारा सत्य को जानता है-सत्य के अथाह सागर में वह प्रतीक रूपी कंकड़ फेंक कर उसकी थाह का अनुमान करता है। यदि हम सागर को हमारे सब कुछ न जाने हुए भी प्रतीक मान लें तो मछली उस प्रतीक का प्रतीक हो जाती है जिसके द्वारा कवि अज्ञात सत्य का अन्वेषण करता है |(138) हिन्दी साहित्य कोष में प्रतीक के दो भेद किये गये हैं- संदर्भीय और संघनित। संदर्भीय प्रतीकों में वाणी और लिपि से व्यक्त शब्द, राष्ट्रीय पताकाएँ, [138]