________________ - इस पद में चित्र दावाग्नि से झुलसी दुमलता तथा साढीविहीन दूध के बिम्बों का मार्मिक नियोजन हुआ है। "कृष्ण के मथुरा गमन के समय गोपियाँ चित्र की भाँति स्तब्ध रह गई, उनकी आँखों से अश्रुप्रवाह उमड़ पड़ा। विरह में खोयी कंधो पर बाँह रखे, वे ऐसे दीख रही थी, मानों दावाग्नि से झुलसी दुम लताएँ हों। कृष्ण को उनसे विमुक्त कर अक्रूर ने उन्हें मलाई रहित दूध के समान नीरस कर दिया।' विभाव विशेष रूप से आधार बनकर रस को प्रकट करते हैं - इसके दोनों रूप आलंबन व उद्दीपन बिम्ब रूप में ही प्रस्तुत होते हैं। आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट रूप में लिखा है कि 'रस के संयोजक जो विभाव आदि हैं वे ही कल्पना के प्रधान क्षेत्र है। विभाववस्तु चित्रमय होती है, जहां वह वस्तु श्रोता या पाठक के भावों का आलम्बन होती है, वहाँ उसका अकेला पूर्ण चित्रण ही काव्य कहलाने में पूर्ण हो सकता है, विभाव का मुख्य प्रयोजन विशिष्ट ज्ञान कराना है, वह सामान्य वस्तु को विशेष बनाकर पाठक या श्रोता के भावों का आलम्बन बनाता है। सामान्य का यह विशिष्टत्व बिम्ब द्वारा ही प्रतिपादित होता है |(111) आश्रय के हृदय में रतिभाव की प्रतिष्ठा के लिए आलम्बन के रूपगत सौंदर्य का दर्शनीय चित्र अंकित किया जाता है। तुलसी ने भी आलम्बन के रूप में सीता और राम दोनों के सौंदर्य को आकर्षक बिम्ब द्वारा दर्शाया है - सुंदरता कहुँ सुन्दर करई। छवि गृह दीपशिखा जनुबरई / / (112) उक्त उदाहरण में सौंदर्य को भी प्रोद्भाषित करने वाली सीता की सुंदरता को कवि ने चित्रशाला में ज्योतित दीपशिखा के चाक्षुष बिम्ब द्वारा बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। रामचरित मानस से श्रृंगार रस का एक अन्य उदाहरण दृष्टव्य है। जिसमें विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव में बिम्बों की छटा देखी जा सकती है : कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि। मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा विस्व विजय कहँ कीन्ही।। अस कहि फिरि चितये तेहिं ओरा। सिय मुख ससि भये नयन चकोरा। भये विलोचन चारू अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजेउ दृगंचल / / (113) | 1311