________________ स्थायी भाव भी (नाट्य), रस रूप को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार काव्य में रस संचार हेतु स्थायी भाव मूलभाव है। आगे वे लिखते हैं कि 'भावानुभाव व्यभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः (104) अर्थात् विभाग, अनुभाव एवम् संचारी भाव के संयोग से रस की व्युत्पत्ति होती है। आचार्य धनंजय ने दृश्य काव्य को "आनन्दनिस्यन्दिषु रूपकेषु" कथन द्वारा रूपक माना है |(105) जिसका उद्देश्य सहृदयों को आनन्द स्वरूप रस का आस्वादन कराना है। चक्षुग्राह्य होने के कारण नाटक में बिम्बात्मकता सहज हो जाती है। चूंकि दृश्य काव्य में हम वस्तु का अपनी स्थूल इन्द्रियों से प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। आँख, कान, नाक से देखते, सुनते व सूंघते हैं। श्रव्य काव्य में यह प्रत्यक्षीकरण स्थूल इंद्रियों से न होकर सूक्ष्म इन्द्रियों से होता है। यदि सही चित्रात्मकता श्रव्य काव्य में उत्पन्न कर दी जाए तो वहां भी रसानुभूति होती है। यह चित्रात्मकता ही बिम्ब विधान है।(106) __ रस सिद्धान्त का संपूर्ण आधार स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव ही हैं, जिसमें स्थायी भाव अमूर्त तथा शेष भाव मूर्त रूप में रहते हैं। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार 'रस के परिपाक के लिए अमूर्त स्थायीभाव का चित्रण न कर उसके कारण कार्य आदि के वर्णन की ही व्यवस्था की गई है। स्थायी भाव अमूर्त है, अतः उनकी व्यंजना ही सम्भव है। विभाव और अनुभाव मूर्त हैं, जिनका वर्णन किया जा सकता है, अतः कवि मूर्त कारण कार्य का वर्णन कर अमूर्त भाव की व्यंजना करने में सफल होता है, इस प्रकार प्रसंग नियोजन या विभावानुभाव योजना अमूर्त के मूर्त्तन का सबसे सुगम एवं व्यवहारिक उपाय है। (107) पुष्टि हेतु उन्होंने मतिराम का निम्नलिखित दोहा प्रस्तुत किया है : ध्यान करत नन्द लाल कौ, नये नेह में बाम। तनु बूड़त रंग पीत में, मन बूड़त रंग श्याम।। उक्त उदाहरण में नये नेह की अनुभूति को 'बाम' और 'नन्दलाल' पर आरोपित कर आलम्बन (नन्दलाल), उद्दीपन (पीताम्बर का आकर्षण या श्यामल छवि) अनुभाव, (ध्यान करना कल्पना के द्वारा पीताम्बर में डूबना) संचारी (स्मृति [129]