________________ बिम्ब और रस रस सिद्धांत भारतीय काव्य शास्त्र का सबसे प्राचीन व्यापक और बहुमान्य सिद्धांत है। काव्य में सबसे पहले रस की प्रतिष्ठा नाटक के संदर्भ में आचार्य भरतमुनि ने की। रस आस्वाद है, आह्लाद है, ब्रह्मानंद का सहोदर है-इसीलिए काव्यानंद है। रस को काव्य की आत्मा मानने का कारण भी यही था। रस का संपूर्ण कार्य व्यापार भाव जगत् से है। और ये मूल भाव रति, हास, आश्चर्य, उत्साह, क्रोध, भय, शोक, जुगुप्सा, निर्वेद मानव मन या हृदय में स्थायी रूप से रहते हैं। अनुकूल परिस्थिति में इनका प्रस्फुरण होता है। जिसे विरोधी अथवा अविरोधी भाव न तो अपने में छिपा सकते हैं और न ही दबा सकते हैं। ये बराबर रस में आदि से अंत तक बने रहते हैं जिसकी आनंदानुभूति अथवा काव्यानुभूति सहृदय अथवा दर्शक को होती रहती है। आचार्य भरत ने रस की व्याख्या नाटकों के संदर्भ में की है। इसलिए दृश्य और दर्शक का प्रत्यक्षतः संपर्क भाव से होता है, जो आरोपित किंतु मूर्त रूप में दर्शक के मानस पटल पर बिम्बित होता होता है जैसे यदि कोई पात्र राम के रूप में लीला कर रहा है, तो सहृदय में जो भाव जागृत होंगे वह राम के प्रति होंगे। पात्र के माध्यम से प्रेक्षक या दर्शक के मानसपटल पर राम का बिम्ब अंकित होगा, जिस कारण भाव का रसास्वादन वह आसानी से कर सकेगा। ___काव्य की आनंदानुभूति दो रूपों में की जाती है - प्रथम, दृश्यकाव्य के रूप में, तथा द्वितीय श्रव्य काव्य के रूप में। नाटक दृश्य काव्य का श्रेष्ठतम रूप है। यह 'चित्रवत्' या 'दृष्टिगोचर होता है। इसीलिए वामन दृश्य काव्य को श्रेष्ठ मानते हुये "काव्येषु नाटकम् रम्यम्" का कथन करते हुए प्रकारान्तर से उसकी चित्रात्मकता पर ही बल देते हैं जो बिम्ब विधान में सहायक होता है। आचार्य भरत ने रस के स्वरूप के संबंध में लिखा है कि 'यथाहि नाना व्यंजनौषधि ग्रव्यंसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः भवति, यथा हि गुडा दिभिर्द्रव्यैव्यंजनैरोषधिभिश्च षाऽवादयो रसा निर्वर्तन्ते तथा नानाभावोपगता अपि स्थायिनो भावा रसत्व माप्नुवन्तीति / (103) अर्थात् जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यंजनों, औषधियों तथा द्रव्यों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है, जिस प्रकार गुड़ादि द्रव्यों, व्यंजनों और औषधियों से षाडवादि रस बनते हैं उसी प्रकार विविध भावों से संयुक्त होकर