________________ होगा। व्यंजना के अतिरिक्त मोटे तौर पर लक्षणा एवं लोकोक्ति तथा मुहावरे भी काव्य भाषा में प्रयुक्त होकर उसकी व्यंजकता को बढ़ा देते है। कवि को चमत्कार पूर्ण भाषा से बचना चाहिए क्योंकि जहां भी भाषा में चमत्कार हुआ वही पर वह अपनी सहजता और सामान्यीकरण की प्रक्रिया को धूमिल कर देता है। रीतिकाल के आचार्य भाषा के चमत्कारी प्रयोग के कारण ही दुरूह हो गये। केशव को 'कठिन काव्य का प्रेत' इसी चमत्कारी भाषा प्रयोग के कारण ही कहा गया। अस्तु कवि की भाषा सहज, सरल, प्रवाहमयी तथा मर्म को छूने वाली होनी चाहिए तभी वह काव्य के बिम्ब को चरितार्थ कर सकेगी। कवि का बुद्धि बल, अतिश्योक्तिपूर्ण रचना तथा शब्दालंकारों की प्रस्तुति काव्य में 'बिम्ब ग्रहण' में बाधा उपस्थित करती है जैसे : एकदा तु कतिपयामासापगमे काकली गायन इव समृद्ध निम्नगा नद .... सायन्तन समय इव नर्तित नीलकंठ: समाजगाम वर्षा समयः / (96) उक्त उदाहरण में वर्षा ऋतु से कोई स्पष्ट बिम्ब नदी का बन पाता, ध्यान पूरी तरह शब्दो पर ही केन्द्रित हो जाता है जिससे बिम्ब में बाधा आती है, इसे न तो दृश्य कह सकते हैं और न ही यहाँ सादृश्य है। सरस काव्य में भाषागत क्रीड़ा की आलोचना संस्कृत आलोचकों ने भी की है। सी.डे.लेविस मानते हैं कि कविता की भाषा सहज होनी चाहिए। बिम्ब के लिए सरल, स्वाभाविक भाषा की आवश्यकता है, चमत्कार प्रधान नहीं।(97) काव्य भाषा में रूपकात्मकता बिम्ब विधान की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। इसमें रूपक, समासोक्ति मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। लेविस के अनुसार किसी कवि को मापने के लिए उसके बिम्बोंया मेटाफर (रूपक) की तीव्रता और मौलिकता देखनी चाहिए।(8) आगे लेविस लिखते है कोई भी कविता आद्यंत संबंध सूत्रों से जुड़ी रहती है और ऐसी स्थिति में प्रतीक बिम्ब एक वस्तु मात्र की ही पुनर्रचना नहीं करता अपितु वह वस्तु को संबंधों के साथ रचता है और इस तरह से वह बिम्ब कविता के संबंध सूत्रों की श्रृंखला के साथ एकाकार हो जाता है / (00) सादृश्यता के कारण भावों के आरोपण द्वारा ही अमूर्त वस्तु को बिम्ब रूपायित करता है। अचेतन पदार्थ पर एक चेतन धर्म का आरोप ही विषय 126]