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यत्रार्थः शब्दौ वा तमर्थ मुप सर्जनी कृत स्वार्थौ ।
व्यक्तः काव्य विशेषः सध्वनि रिति सूरिभिः कथितः । (42)
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अर्थात् जो अर्थ वाच्य अर्थ की अपेक्षा भिन्न होता है, उसे ध्वनि कहते हैं । यदि ये शब्द और अर्थ सचित्र हों तो उनसे जो व्यंजना की जायेगी, वह बिम्ब कहलाएगी। ध्वनि का संबंध शब्द शक्तियों से है । शब्द शक्तियों में लक्षणा और व्यंजना 'बिम्ब' के सन्निकट हैं । लक्षणा में मूर्ति विधान का गुण होता है, इसीलिए प्रत्येक लक्ष्यार्थ एक प्रकार का बिम्ब होता है । भाषा को चित्रमय, प्रभावशाली एवं रोचक बनाने के लिए प्रायः कवियों द्वारा लक्षणा का सहारा लिया जाता है । उदाहरण के तौर पर जब यह कथन किया जाता है कि 'मचान चिल्ला रहे हैं, तब इसका लक्ष्यार्थ होता है कि 'मचान' पर बैठे लोग चिल्ला रहे हैं । इस प्रकार इस कथन से चिल्लाते हुये व्यक्तियों का 'बिम्ब' उभरता है । यदि यह कथन किया जाय कि 'सामने देखा खड़ा था अस्थिपंजर 'एक', तो 'अस्थिपंजर' के लक्ष्यार्थ से कंकालमात्र एक दुर्बल अथवा कृशकाय व्यक्ति का बिम्ब बनता है ।
गौणी लक्षणा में सादृश्य संबंध होने से स्वतः बिम्ब निर्माण होता है । 'सारोपा' में उपमेय और उपमान दोनों का ग्रहण रहता है किंतु साध्यवसाना में केवल उपमान ही रहता है। ये रूपक और रूपकातिशयोक्ति अलंकार से सम्बन्धित हैं जिनसे प्रायः बिम्ब बनते हैं | (43)
व्यंजना शब्दशक्ति से स्वच्छंद बिम्बों का निर्माण होता हैं । व्यंग्यार्थ ध्वन्या भी बिम्ब रूप होता है जैसे- दिन डूब गया कथन से भिन्न-भिन्न श्रोता भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं और यह भिन्न-भिन्न अर्थ मनः चिंतन के अनुसार भिन्न-भिन्न बिम्ब प्रस्तुत करता है । इस कथन से पुजारी के लिए संध्यावंदन का बिम्ब, चरवाहे के लिए घर वापसी का बिम्ब तथा प्रेमी के लिए अभिसार का बिम्ब उभरता है। इस प्रकार 'लक्षणा द्वारा उद्बुद्ध बिम्ब जहाँ शब्दार्थ से सम्बद्ध होते हैं वहाँ ये (व्यंजना) बिम्ब स्वतंत्र होते हैं इनका सम्बन्ध शब्दार्थ से न होकर श्रोता की कल्पना से होता है। रिचर्ड्स ने इस दृष्टि से प्रथम वर्ग के बिम्बों को संबद्ध और दूसरे वर्ग के बिम्बों को स्वच्छंद कहा है । (44)
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