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अधिक है, 'परंतु मूल अलंकार एक प्रकार से समान ही हैं। हमारे उपमा, रूपक, अत्युक्ति, विरोधाभास, वक्रतामूलक अलंकार, श्लेष, यमक आदि पश्चिम के सिमली, मेटाफर, हाइपर बोल, आक्सीमारन, इनुएंडो आदि के समानार्थक व समानधर्मी है । (35)
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भारतीय समीक्षा में कुन्तक का 'वक्रोक्ति' सिद्धांत कवि कर्म कौशल को महत्व देता है । कुन्तक के अनुसार 'कवेः कर्म काव्यम्' अर्थात कवि का कर्म ही काव्य है । कवि का कर्म क्या है ? कुन्तक इस पर मौन है, किंतु प्राकारान्तर से वे (वक्रोक्तिजीवितम्)
संकेत भी देते हैं
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शब्दार्थो सहितौ वक्रकवि व्यापार शालिनी
वन्धे व्यवस्थितौ काव्यम्, तद्विदाहलाद कारिणि ।
कुन्तक काव्य में शब्द और अर्थ दोनों को महत्व देते हुए प्रत्येक रचना के लिए 'आहलादकारिणी' होना आवश्यक मानते है । 'आह्लाद' काव्य का प्रयोजन है। इससे स्पष्ट है कि रस भाव से संपृक्त होने पर ही वक्रोक्ति आहलाद कारिणी हो सकती है। वक्रोक्ति वचन वक्रता पर आधारित है, और वचन वक्रता हमेशा अपने में नवीनता लिए रहती है, जो बिम्ब विधान का गुण है क्योंकि रूढ़गत शब्द भावोत्कर्ष के रूप में अपनी बिम्बात्मक प्रायः खो देते हैं । इस अर्थ में वक्रोक्ति की वक्रता कथन को शाणित करती हुयी बिम्ब के रूप में प्रस्तुत करती है । 'वक्रोक्ति सिद्धांत के अनेक प्रकारों में काव्यबिम्ब का रहस्य उद्घाटित हुआ है बिम्ब विधान के अनेक रूपों का कुन्तक की वक्रताओं में स्पष्ट समावेश है । भाषा - भेद की दृष्टि से भी बिम्ब व वक्रोक्ति के भेदों में साम्य है । बिम्ब, प्रबंध, प्रकरण वाक्य व वाक्यांश
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में स्थित माना गया है । हिन्दी आलोचकों की पुस्तक में निश्चित रूप से ये भेद वक्रोक्ति जीवित से प्रभावित ज्ञात होते हैं ।" (36) नगेन्द्र ने भी प्रबंध बिम्ब व प्रकरण बिम्ब के अंतर्गत कुन्तक की प्रबंध वक्रता व प्रकरण वक्रता की ही व्याख्या की है |(37)
वस्तुतः वक्रोक्ति की वक्रता में ही बिम्बात्मकता होती है । वर्ण, पर्याय, उपचार, संवृत्ति, लिंग, विशेषण प्रकरण, प्रबंध आदि की वक्रता में बिम्बों की यथोचित सतता झलकती हुयी प्रतीत होती है । वर्ण विन्यास वक्रता में वर्ण थोड़े-थोड़े
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