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का, जबकि आधुनिक आलोचना में बिम्ब मूल भाव का नही, वरन् उसको बिम्बित करने वाले मूर्ति विधान का ही वाचक है।22) इसी प्रकार निदर्शना अलंकार की परिभाषा में भी बिम्ब प्रतिबिम्ब शब्द प्रयुक्त हुआ है – 'यत्र बिम्बानु बिम्बत्वं बोधयेत निदर्शना (23) अथवा 'जहां वस्तुओं का परस्पर संबंध उनके बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव का बोध करे वहाँ निदर्शना अलंकार होता है। (24) इस प्रकार दृष्टांत और निदर्शना सादृश्यमूला होने के कारण उपमेय और उपमान रूप में प्रस्तुत होते हैं।
डॉ. नगेन्द्र ने बिम्ब का सम्बन्ध अलंकार, ध्वनि वक्रता के साथ अधिक और रीति के साथ अपेक्षाकृत कम माना है। उनके अनुसार 'अलंकार विधान में सादृश्य मूलक अलंकार प्रायः बिम्बात्मक होते हैं, जिनमें सादृश्य प्रतीयमान रहता है उनमें बिम्ब की स्थिति और भी निश्चित रहती है। (25) केदारनाथ सिंह की दृष्टि में बिम्ब का सबसे निकट का संबंध अलंकार से हैं |(26) क्योंकि अलंकार का संपूर्ण आधार उपमान अथवा अप्रस्तुत है। उनके अनुसार 'अलंकार का संबंध अप्रस्तुत विधान से है, वह अप्रस्तुत को ग्राह्य और रोचक बनाता है परंतु बिम्ब का संबंध प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों से होता है, बिम्ब वह केंद्रीय बिन्दु है जहां अलंकार और अलंकार्य का भेद समाप्त हो जाता है अथवा यों कहें कि जहां दोनों समन्वित होकर कोई अधिक जटिल और प्रभावशाली रूप धारण कर लेते हैं |r) 'परंतु आधुनिक आलोचना शास्त्र का बिम्ब विधान और भारतीय अलंकार शास्त्र का अप्रस्तुत विधान एक नहीं है उनमें सहव्याप्ति मानना समीचीन नहीं है। बिम्ब विधान की परिधि में प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों का समावेश हो सकता है। केवल अप्रस्तुत ही नहीं प्रस्तुत भी बिम्ब रूप में हो सकता है और होता है (28) जैसे -
सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात। मनहुँ नीलमणि शैल पर आतप पर्यो प्रभात ।। (29)
उक्त उदाहरण में उत्प्रेक्षा अलंकार है। पीताम्बर से सुशोभित श्री कृष्ण के श्याम सलोने गात्र (प्रस्तुत) पर प्रातः कालीन आतप से आलोकित नीलमणि शैल (अप्रस्तुत) की उत्प्रेक्षा की गयी है। यहाँ प्रस्तुत में लक्षित और अप्रस्तुत में उपलक्षित बिम्ब स्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार बिम्ब विधान का क्षेत्र व्यापक है, उसे
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