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रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि भिखारीदास ने काव्य का प्रयोजन निम्नलिखित कविता के द्वारा स्पष्ट किया है :
एक लहै तप पुंजन के फल, ज्यों तुलसी अरू सूर गोसाई। एक लहै बहु संपत्ति केशव, भूषण ज्यों बर वीर बड़ाई।। एकन्ह को जस ही सो प्रयोजन, हैं रसखानि रहीम की नाई। दास कवितन्ह की चर्चा, बुद्धिवन्तन को सुख दै सब ठाई।।
मम्मट की भाँति भिखारीदास ने भी काव्य का प्रयोजन चतुर्वर्ग की प्राप्ति (तप पुंजों का फल). सम्पत्ति, यश और आनंद को माना है।
काव्य का उद्देश्य महत् होता है। यदि लोकमंगल की धारणा से काव्य का सृजन होता है। तो वही काव्य अक्षुण्ण एवं काल के कपाल पर अमिट रेखा खींचने में समर्थ होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी 'स्वान्तः सुखाय' से प्रेरित हो काव्य रचना में प्रवृत्त हुए। यही कारण था कि उनका काव्य लोक हिताय बना। काव्य मनोरजन की वस्तु नहीं है, आनन्द का विषय है। आनन्दानुभूति दिव्यातिदिव्य तभी हो पाती है जब वह लोकमंगल की धारणा से मंडित होती है। साहित्य को समाज का दर्पण मानने का कारण भी यही है कि उसका प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः सम्बन्ध जीवन से है। वह जीवन के लौकिक अथवा आध्यात्मिक पक्षों का उद्घाटन कर्ता है। इसलिए लोककल्याण की दृष्टि से उसकी भूमिका अहं हो जाती है। इस प्रकार काव्य मात्र मनोरंजन का विषय नहीं अपितु जीवन का पथ प्रदर्शक है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार :- प्रायः सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरंजन है, पर जैसा कि हम पहले कह आए हैं कविता का अंतिम लक्ष्य जगत के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है।6) आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी साहित्य का प्रयोजन आत्मानुभूति मानते हैं। उनके अनुसार 'काव्यानुभूति स्वतः एक अखण्ड आत्मिक व्यापार है, जिसे किसी दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक या साहित्यिक खण्ड व्यापार या वाद से जोड़ने की आवश्यकता नहीं। समस्त साहित्य में इस अनुभूति या आत्मिक व्यापार का प्रसार रहा है। काव्य का प्रयोजन मनोरंजन अथवा सामाजिक वैषम्य से दूर भागना अथवा पलायन से भी नहीं हो सकता क्योंकि वैसी
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