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धर्म की कामना करते हैं तो कुछ मान प्रतिष्ठा की, कुछ लोक कल्याण में प्रवृत्त होते हैं तो कुछ 'स्वान्तः सुखाय' में। अपनी-अपनी रूचि और भावनानुरूप ही कवि काव्य का सृजन करते हैं ।
आचार्य भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में काव्य प्रयोजन के संबंध में लिखा है कि :
धर्म्य यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्द्धनम् । लोकोपदेश जननं नाट्यमेतद भविष्यति ।
अर्थात् नाट्य धर्म, यश और आयु का साधक, हितकारक बुद्धि का वर्धक तथा लोकोपदेशक होता है। आचार्य भामह ने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, प्रीति (आनन्द) तथा कीर्ति को काव्य का प्रयोजन माना है। उनके अनुसार :--
धर्मार्थ काम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च ।
करोति कीर्ति प्रीति च साधु काव्य निबन्धनम् । । (58)
आचार्य वामन ने ‘काव्यं सट् दृष्टादृष्यर्थं प्रीति कीर्ति हेतुत्वात् कथन से काव्य के दृष्ट प्रयोजन में प्रीति अथवा आनंद और अदृष्ट प्रयोजन में 'कीर्ति' अथवा 'यश' को माना है। आचार्य रुद्रट के अनुसार काव्य का प्रयोजन 'यश' विस्तार है । कुन्तक ने काव्य का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से बढ़कर परमानन्द की प्राप्ति माना है :
चतुर्वर्ग फलास्वावमप्यतिक्रम्य तदृिदाम | काव्यामृतर सेनांन्तश्चत्मकरो वितन्यते । । (69)
आचार्य मम्मट ने काव्य प्रयोजन की विस्तृत व्याख्या करते हुए लिखा है कि :
काव्य यशसेऽर्थकृते व्यवहार विदे शिवेतर क्षतये ।
सद्यः पर निर्वृतये कान्ता सम्मित तयोपदेशयुजे । । (60)
अर्थात् यश, धन, व्यावहारिक ज्ञान की उपलब्धि, अशिव की क्षति (लोकहित ), अलौकिक आनंद की प्राप्ति और कान्ता सम्मति उपदेश काव्य के प्रयोजन हैं ।
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