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कलंक है, बहुत बड़ी हिंसा है । महाप्रज्ञ जी मानवता के उपासक हैं । मानवता अहिंसा का ही पर्याय है, जिसका संस्थापक स्वयं मानव ही है और यदि इस सृष्टि को किसी भगवान ने बनायी है, तो क्या उसने ही शोषक और शोषित को बनाया । यदि हाँ तो महाप्रज्ञ जी भगवान की सत्ता के समक्ष एक विकट प्रश्न खड़ा करते हैं, जिसका कोई उत्तर नहीं
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यदि मैं भगवान होता
तो इस धरती पर एक भी आदमी बुद्धिमान नहीं होता
क्या सर्वव्यापी प्रभु
सृष्टि इसलिए रचता है कि
बुद्धिमान, बुद्धिहीन का शोषण करता रहे | (57)
इस प्रकार निष्काम भाव से आचार्य महाप्रज्ञ मनसा, वाचा, कर्मणा अपनी लेखनी एवं प्रवचन के द्वारा मानवता के मार्ग को प्रशस्त करते रहते हैं। ऐसे सन्त किसी भी राष्ट्र की अमूल्य धरोहर है । वे केवल जैनधर्म के ही अनुयायी नहीं है, वे तो विश्व मानव धर्म के पुरस्कर्ता हैं । ऐसे कविर्मनीषी को शत् शत् वन्दन ।
काव्य का लक्ष्य
जब कोई कवि किसी काव्य अथवा महाकाव्य की रचना में प्रवृत्त होता है तब उसका कोई न कोई महत उद्देश्य होता है । मानव की प्रत्येक प्रवृत्ति हेतु मूलक होती है, और यही हेतु उसे कार्य के लिए प्रवृत्त करता है । जिस लक्ष्य को ध्यान में रख कर कवि काव्य का सृजन करता है, वह लक्ष्य ही उसका प्रयोजन होता है। साहित्य का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन विकास के क्रमिक सोपान हैं । इस चतुर्वर्ग की प्राप्ति जीवन का परम लक्ष्य है। इसलिए काव्य का प्रयोजन भी चतुर्वर्ग की प्राप्ति है। भारतीय एवं पाश्चात्य विचारकों ने काव्य प्रयोजन की विशद व्याख्या की है और माना है कि प्रत्येक कवि अपने जीवन के किसी न किसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए काव्य का सृजन करता है। कुछ 'यश' की कामना करते हैं, तो कुछ अर्थ की, कुछ
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