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समस्यापूर्ति में भी आचार्य महाप्रज्ञ सिद्धहस्त हैं। सिंदूरविन्दु विधवा ललाटे' पंक्ति पर समस्या पूर्ति करते हुए कवि श्री ने कहा :--
सिंदूर विन्दुर्विधवा ललाटे, गंगाम्बु गौरे कृत विदुमेर्पाः । स्वंरक्तिमानं, नयने मुखेऽपि, द्रष्टुः स्मयः किं प्रतिबिम्ब येत्तत।54)
तिलक विद्यापीठ पुणे एवं बनारस संस्कृत महाविद्यालय में समस्यापूर्ति हेतु आचार्य श्री को जो विषय दिया गया उसकी बानगी उनके 'आत्मकथ्य' में देखी जा सकती है।(55)
'मुकुलम् संस्कृत के लघु निबंधों का संकलन हैं। इसमें कुल 49 निबंध संग्रहित हैं, जो भावनात्मक, संवेदनात्मक एवं विचारात्मक कोटि के हैं। यह पुस्तक विद्यार्थियों के लिए विशेषतः उपयोगी है।
'तुलसी मंजरी' प्राकृत व्याकरण से सम्बन्धित रचना है। इसे प्राकृत व्याकरण को सहज एवं बोधगम्य बनाने हेतु लिखा गया है।
इस प्रकार आचार्य महाप्रज्ञ के साहित्य का क्षेत्र विस्तृत है। उनके प्रत्येक विचार का समापन दर्शन से होता है। अनेकांत-दर्शन का प्रभाव उन पर विशेष है, इसलिए किसी भी दर्शन या धर्म से उनका कोई विरोध नहीं। जहाँ भी उन्हें सत्य दिखा, वहाँ उनका आकर्षण बढ़ा। वे किसी 'वाद' में नहीं पड़े और न ही किसी वाद पर उनका विश्वास था। उन्होनें स्पष्ट शब्दों में घोषणा की :
वाद लेकर तुम चलो वह डगमगाता सा लगेगा। हार्द लेकर तुम चलो वह जगमगाता सा लगेगा। चपलता को जोड़ देखो, सत्य अस्थिर सा लगेगा। चपलता को छोड़ देखों, सत्य सुस्थिर सा लगेगा।56)
महान संत हमेशा युग जीवन को अपने चरित्र से प्रभावित करते रहे हैं। यदि कहीं प्रेम देखा तो हृदय पुलकन से भर गया, और यदि कहीं शोषण देखा तो मन उबल पड़ा। मानव द्वारा मानव का शोषण मानवता पर बहुत बड़ा
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