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(5) गद्य-पद्य काव्य (6) कथा-साहित्य (7) संस्कृत-साहित्य (45)
'प्रेक्षाध्यान' के संबंध में 'दशवैकालिक' संत्र में कहा गया है कि 'संपिक्रवए
अप्पगमप्पएणं'-आत्मा के द्वारा आत्मा की संप्रेक्षा करो, स्थूल मन के द्वारा सूक्ष्म मन को देखो। स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो। देखना ध्यान का मूलतत्व है। इसलिए इस ध्यान पद्धति का नाम प्रेक्षाध्यान रखा गया।46) प्रेक्षाध्यान का स्वरूप है अप्रमाद चैतन्य का जागरण या सतत जागरूकता। जो जागृत होता है वही अप्रमत्त होता है जो अप्रमत्त होता है वही एकाग्र होता है। एकाग्रचित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान कर सकता है।) आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षा साहित्य के अंतर्गत योग और ध्यान की सूक्ष्मातिसूक्ष्म गतिविधियों पर प्रकाश डाला है। इसमें 'कैसे सोंचे ?', 'किसने कहा मन चंचल है ?', 'एकला चलो रे', 'मन के जीते जीत', 'आभामण्डल', 'अवचेतन मन से संपर्क', 'अहम्', 'अमूर्त चिंतन', 'अप्पाणं शरणं गच्छामि', 'अनेकांत है तीसरा नेत्र', 'महावीर की साधना का रहस्य', 'जैनयोग', 'सोया मन जग जाए', 'अभय की खोज', 'समाधि की खोज', 'समाधि की निष्पत्ति', 'मेरी दृष्टि मेरी सृष्टि', 'प्रेक्षाध्यान-श्वासप्रेक्षा', 'प्रेक्षाध्यान
और कायोत्सर्ग', 'ध्यान और कार्योत्सर्ग'-आदि रचनाएं प्रमुख एवं सर्वोपयोगी सिद्ध हुयी है।
'व्यक्ति' और 'विचार' के अन्तर्गत आचार्य महाप्रज्ञ ने जैन दर्शन से सम्बन्धित महान विभूतियों के जीवन दर्शन से समग्र मानव जाति को परिचित कराया है, जिसमें 'श्रमण महावीर', "भिक्षु विचार दर्शन', 'प्रज्ञापुरूष जयाचार्य', 'धर्मचक्र का प्रवर्तन', 'आचार्य श्री तुलसी-जीवन और दर्शन', आदि कृतियाँ मुख्य हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के जीवन पर उक्त महापुरूषों का अन्यतम प्रभाव पड़ा। स्वामी महावीर संपूर्ण जैन दर्शन के मूल में है वे चौबीसवें तीर्थकर के रूप में ख्यात् ध्यान और तप के प्रतीक पुरूष हैं। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दृष्टि और सम्यक् चारित्र्य उनके तत्व चिंतन का मूलमंत्र है। आचार्य भिक्षु 'तेरापंथ धर्म संघ' के संस्थापक हैं। 'तेरापंथ' की स्थापना में उन्हें अनेक संघर्षों एवं विरोधों का सामना करना
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