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________________ दृष्टि का विषय २२ स्वानुभूति रहित श्रद्धा अब, स्वानुभूति रहित श्रद्धा के विषय में बतलाते हैं - पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध की गाथा गाथा ४२३ अन्वयार्थ-स्वानुभूति रहित श्रद्धा (अर्थात् कोई ऐसा माने कि नवतत्त्व की श्रद्धा, वही सम्यग्दर्शन अथवा सच्चे देव-गुरु-धर्म की श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन मानते हों तो वैसी स्वानुभूति रहित की श्रद्धा) समीचीन (सच्ची-कार्यकारी) श्रद्धा नहीं होती इसलिए जो सम्यग्दर्शन के लक्षणभूत श्रद्धा योगिक रूढ़ि-निरुक्ति से (अर्थात् स्वानुभूतिरूप योगसहित की) सिद्ध अर्थवाली है (अर्थात् सच्ची है-कार्यकारी है) वह भी वास्तव में स्वानुभूति की भाँति अविरुद्ध कथन है (इसलिए श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन, वह स्वानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन ही है)।' ____ अर्थात् स्वानुभूति रहित श्रद्धा कार्यकारी नहीं है इसलिए पूर्व में बतलाये अनुसार मात्र व्यवहारनय को ही मान्य करनेवाले बहुभाग जैन ऐसा मानते हैं कि-सम्यग्दर्शन अर्थात् सात/नौ तत्त्वों की (स्वात्मानुभूति रहित) श्रद्धा अथवा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की (स्वात्मानुभूति रहित) श्रद्धा। सम्यग्दर्शन की यह व्याख्या व्यवहारनय के पक्ष की है अर्थात् वैसी स्वानुभूति रहित श्रद्धा समीचीन (सच्ची-कार्यकारी) श्रद्धा नहीं होती इसलिए जो सम्यग्दर्शन के लक्षणभूत श्रद्धा यौगिक रूढ़ि-निरुक्ति से अर्थात् स्वात्मानुभूतिरूप योगसहित की सिद्ध अर्थवाली है अर्थात् सच्ची है कार्यकारी है और वह समीचीन (सच्ची-कार्यकारी) श्रद्धा भी वास्तव में स्वानुभूति की भाँति अविरुद्ध कथन है अर्थात् वैसी श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन वह स्वानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन ही है अर्थात् जो एक को अर्थात् आत्मा को जानता है, वही सर्व को अर्थात् सात/नौ तत्त्वों को और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र को जानता है क्योंकि एक आत्मा को जानते ही वह जीव सच्चे देवतत्त्व का आंशिक अनुभव करता है और इसीलिए वह सच्चे देव को अन्तर से पहिचानता है और ऐसे सच्चे देव को जानते ही अर्थात् (स्वात्मानुभूति सहित की) श्रद्धा होते ही वह जीव वैसा देव बनने के मार्ग में चलनेवाले सच्चे गुरु को भी अन्तर से पहिचानता है और साथ ही साथ वह जीव वैसे देव बनने का मार्ग बतलानेवाले सच्चे शास्त्र को भी पहिचानता है। निश्चय सम्यग्दर्शन की सच्ची व्याख्या ऐसी होने पर भी व्यवहारनय के पक्षवाले को सम्यग्दर्शन की ऐसी सच्ची व्याख्या मान्य नहीं होती अथवा वे ऐसी व्याख्या का ही विरोध करते हैं और इसलिए वे सम्यग्दर्शन अर्थात् सात/नौ तत्त्वों की कही जाती (स्वात्मानुभूति रहित की)
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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