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उपयोग और लब्धिरूप सम्यग्दर्शन
उपयोग और लब्धिरूप सम्यग्दर्शन
पंचायध्यायी उत्तरार्द्ध की गाथागाथा ४०४ अन्वयार्थ-“इतना विशेष है कि सम्यग्दर्शन और स्वानुभव इन दोनों में विषम व्याप्ति है क्योंकि 'सम्यग्दर्शन के साथ में उपयोगरूप स्वानुभूति होवे ही' ऐसी समव्याप्ति नहीं है (अर्थात् सम्यग्दर्शन की उपस्थिति के समय स्वात्मानुभूतिरूप अनुभव होता भी है और नहीं भी होता इसलिए समव्याप्ति अर्थात् अविनाभाव उपस्थिति नहीं होती) परन्तु लब्धि में अर्थात् लब्धिरूप (ज्ञान की लब्ध और उपयोगरूप ऐसी दो अवस्थायें होती हैं, उनमें लब्धिरूप अवस्था में) स्वानुभूति के साथ सम्यग्दर्शन की समव्याप्ति है (अर्थात् सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में ज्ञान में लब्धिरूप से स्वानुभूति की उपस्थिति अविनाभाव अर्थात् नियम से होती ही है।)"
___ अर्थात् पूर्व में पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध की गाथा २१५ में बतलाये अनुसार आत्मा की उपलब्धि 'शुद्ध' विशेषणसहित होती है अर्थात् शुद्धोपयोगरूप स्वात्मानुभूतिरूप अनुभवसहित होवे तो ही वह सम्यग्दर्शन का लक्षण हो सकती है। और यदि वह आत्मोपलब्धि अशुद्ध हो तो वह सम्यग्दर्शन का लक्षण नहीं बन सकती परन्तु वह शुद्धोपयोगरूप स्वात्मानुभूतिरूप अनुभव का सातत्य क्षणिक ही होने पर भी उसका सातत्य लब्धरूप तो सम्यग्दर्शन की उपस्थिति के समय नियम से होता ही है।