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स्वानुभूति रहित श्रद्धा
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श्रद्धा अथवा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की कही जाती (स्वात्मानुभूति रहित की) श्रद्धा इतना ही मानते होने से उन्हें स्वात्मानुभूति रहित की श्रद्धा और स्वात्मानुभूति सहित की श्रद्धा दोनों का अन्तर ज्ञात नहीं होता अथवा ज्ञात नहीं करना चाहते ; इसलिए वे सम्यग्दर्शन जो कि धर्म का मूल है, उसके विषय में ही अनजान रहकर पूरी जिन्दगी धर्मक्रिया उत्तम रीति से करने पर भी संसार के अन्त करनेवाले धर्म को प्राप्त नहीं करते कि जो करुणा उत्पन्न करनेवाली बात है।