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________________ पर्याय परमपारिणामिकभाव की ही बनी हुई है 67 ETC. AND AS KNOWLEDGE, MEMORY, ETC. = औदयिकादि सर्व विशेषभाव BUT I SHALL BE AWARE OF MYSELF AND RESTRAIN MYSELF FROM BEING GETTING INVOLVED IN SINS, LUST, ANGER, EGO, DECEIT, CRUELTY, FEAR, POSSESSIVENESS, ETC. FOR SAVING MYSELF OF BONDAGE, UNLIMITED PAIN AND SUFFERINGS. गाथा-६३-६४ अन्वयार्थ-'शंकाकार कहता है कि-जो अनादि सत् में वैभाविकीक्रिया (विभावरूप औदयिकभाव) भी परिणमनशीलता से होते हैं। (अर्थात् वे भाव भी पारिणामिकभाव ही होते हैं) तो नियम से उसमें स्वाभाविकीक्रिया से (अर्थात् परमपारिणामिकभाव से) विशेषता रखनेवाले कौन सा विशेष भेद रहेगा? तथा पदार्थों को जाननेवाला ज्ञान आत्मा का स्वलक्षण है, इसलिए उस ज्ञान की इस ज्ञेय के आकार होनेरूप क्रिया किस प्रकार वैभाविकीक्रिया हो सकती है?' यही बात समयसार गाथा ६ में भी कर्ताकर्म का अनन्यपना बतलाकर समझायी है, वहाँ ऐसा समझना कि कर्म (ज्ञेयाकार=चार भावपर्याय=विशेषभाव), कर्ता (सामान्यभाव परम पारिणामिकभाव=ज्ञायकभाव) के ही बने होने से कर्ताकर्म का अनन्यपना बतलाया है और दूसरा समयसार गाथा ६ में जाननेवाला वह मैं अर्थात् आत्मा जब पर को जानता है, तब जो ज्ञेयाकार है, वह वास्तव में ज्ञानाकार ही है और उस ज्ञानाकार में भी जब आकाररूप विकल्प को गौण किया जाये तो वह ज्ञायक ही है अर्थात् वही ‘परमपारिणामिकभाव' है, ‘कारणशुद्धपर्याय' है, यही बात यहाँ दृढ़ होती है। यही बात समयसार गाथा १३ में भी बतलायी है-उसमें दृष्टि का विषय नौ तत्त्व में (पर्याय में) छुपा हुआ आत्मज्योतिरूप कहा है । अर्थात् अव्यक्त व्यक्त में ही छुपा हुआ है अर्थात् व्यक्त अव्यक्त का ही बना हुआ है तथापि कहा ऐसा ही जाता है कि व्यक्त को अव्यक्त स्पर्शता ही नहीं। यही विशिष्टता है जैनशासन के नयचक्र की और इसी अपेक्षा से अव्यक्त के बोल समझना आवश्यक है, अन्यथा नहीं अर्थात् एकान्त से नहीं। क्योंकि एकान्त तो अनन्त परावर्तन का कारण होने में समक्ष है। इसलिए हम जब प्रश्न करते हैं कि यह पर्याय किसकी बनी हुई है? और उत्तर में हम बतलाते हैं कि 'परमपारिणामिकभाव की' अर्थात् जो पर्याय है वह द्रव्य की ही (ध्रुव की ही, परमपारिणामिकभाव की ही) बनी हुई है कि जिसके विषय में हमने पूर्व में अनेक आधारोंसहित समझाया ही है, यही बात यहाँ दृढ़ होती है। यही बात समयसार श्लोक २७१ में भी बतलायी है - श्लोकार्थ – 'जो यह ज्ञानमात्रभाव मैं हूँ, वह ज्ञेयों के ज्ञानमात्र न जानना; (परन्तु) ज्ञेयों के आकार से होते ज्ञान के कल्लोलरूप से
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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