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दृष्टि का विषय
परिणमता वह ज्ञान ज्ञेय ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना।' अर्थात् ज्ञेय है वह ज्ञानमय है, ज्ञान है वह ज्ञातामय है और वह ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की एकरूपता से सिद्ध होता है कि पर्याय (ज्ञेय) ज्ञाता (परमपारिणामिकभाव) की बनी हुई है अर्थात् चार भाव (पर्याय=विभावभाव) वह एक परमपारिणामिकभाव के ही बने हैं अर्थात् चारों भावों का (पर्याय का) सामान्य वह परमपारिणामिकभाव है अर्थात् जैसे ज्ञेय में ज्ञाता हाजिर है, वैसे प्रत्येक पर्याय में ज्ञाता= परमपारिणामिकभाव हाजिर ही है... वह पर्याय उसकी ही (ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता) बनी हुई है अर्थात् चार भाव (पर्याय विभावभाव) को गौण करने पर ज्ञायक=परमपारिणामिकभाव प्राप्त होता है, जो कि दृष्टि का विषय है। इस प्रकार प्रत्येक पर्याय में पूर्ण द्रव्य हाजराहजूर है ही, मात्र उसकी दृष्टि करते आना चाहिए, इसलिए ही दृष्टि अनुसार ऐसा कहा जा सकता है कि जो द्रव्य है वही पर्याय है (वह पर्याय दृष्टि) अथवा जो पर्याय है, वही द्रव्य है (वह द्रव्यदृष्टि)।
ज्ञान (आत्मा) सामान्य विशेषात्मक होता है। ज्ञान सामान्यभाव (परमपारिणामिकभाव) निर्विकल्प होता है। जबकि ज्ञानविशेषभाव (चार भावरूप) सविकल्प होता है, जिससे ज्ञान सामान्यभाव (परमपारिणामिकभाव) में 'मैंपना' करते ही निर्विकल्प अनुभूति होती है। यही सम्यग्दर्शन की विधि (पद्धति) है।
गाथा ६६-६७ अन्वयार्थ- (वैभाविकी तथा स्वाभाविकी ये दोनों क्रियायें =पर्यायें जब पारिणामिक ही है तो उनमें कुछ अन्तर ही नहीं) इस प्रकार कहना ठीक नहीं है क्योंकि बद्ध और अबद्ध ज्ञान में अन्तर है, उसमें से मोहनीयकर्म से आवृत ज्ञान को (अर्थात् औदयिकरूप विशेष भाव को) बद्ध कहते हैं तथा जो मोहनीयकर्म से अनावृत ज्ञान को (अर्थात् सामान्य ज्ञान को, ज्ञायकरूप ज्ञान को, परमपारिणामिकभावरूप ज्ञान को तथा कारणशुद्धपर्यायरूप ज्ञान को) अबद्ध कहते हैं। जो ज्ञान मोहकर्म से आवृत्त अर्थात् जुड़ा हुआ है, वह जैसे इष्ट और अनिष्ट अर्थ के संयोग से अपने आप ही राग-द्वेषमय होता है, वैसे ही वह प्रत्येक पदार्थ को क्रम क्रम से विषय करनेवाला होता है अर्थात् उन सर्व पदार्थों को एक साथ विषय करनेवाला नहीं होता।' इसी विषय को गाथा १३० में विशेष स्पष्ट किया है, इसलिए वह अब देखेंगे।
गाथा १३० अन्वयार्थ-‘परगुण आकाररूप पारिणामिकी क्रिया बन्ध कहलाता है तथा उस क्रिया के होने से ही उन दोनों जीव और कर्मों का अपने-अपने गुणों से च्युत होना होता है, वह अशुद्धता कहलाती है।' अर्थात् पारिणामिकी क्रिया अर्थात् पारिणामिकी भावरूप (पर्यायरूप) जीव ही परिणमता है।