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दृष्टि का विषय
पर्याय परमपारिणामिकभाव की ही बनी हुई है
पंचाध्यायी उत्तरार्ध की गाथायें गाथा-११-अन्वयार्थ-‘स्वयं अनादि सिद्ध सत् में (आत्मा में) भी पारिणामिक शक्ति से (पारिणामिकभाव से) स्वाभाविकीक्रिया तथा वैभाविकीक्रिया होती है।'
भावार्थ-आगम में जीव के पाँच भाव कहे हैं, उनमें एक पारिणामिकभाव है, उसे पारिणामिक शक्ति भी कहा जाता है, उसकी दो प्रकार की पर्याय होती है; एक स्वाभाविक तथा दूसरी वैभाविक (यहाँ जो एक द्रव्य की दो पर्यायें कही हैं, वह अपेक्षा से दो है वास्तव में दो नहीं समझना क्योंकि एक द्रव्य की एक ही पर्याय होती है परन्तु उसे सामान्य और विशेष ऐसी दो अपेक्षा से दो पर्याय कही है, उनमें सामान्य को स्वाभाविक पर्याय कहते हैं और विशेष को वैभाविक पर्याय कहते हैं। अर्थात् वह विशेष पर्याय सामान्यभाव की ही बनी हुई होने से अर्थात् वह परमपारिणामिकभाव की ही बनी हुई होने से, वास्तव में पर्याय एक ही होती है) यह दोनों जीव की अपनी अपेक्षा से पारिणामिकभाव है। यह निश्चयकथन है (देखो जयधवला, भाग१, पृष्ठ-३१९ तथा धवला टीका, भाग-५, पृष्ठ-१९७-२४२-२४३) और कर्म के उदय की अपेक्षा बताने के लिये जीव के विकारीभाव को (अर्थात् विभावभावरूप विशेषभाव को) औदयिकभाव कहा जाता है। यह व्यवहार कथन है।'
यहाँ समझना यह है कि निश्चयनय से (अभेदनय से) जीव को एकमात्र पारिणामिक भाव ही होता है परन्तु व्यवहारनय से (भेदनय से) उसी भाव को सामान्य अपेक्षा से परमपारिणामिकभाव और विशेष अपेक्षा से औदयिक आदि चार भावरूप कहा जाता है। अर्थात् विशेषरूप औदयिक आदि चार भावरूप पर्याय सामान्य भाव की ही बनी हुई होती है। अर्थात् वह परमपारिणामिकभाव की ही बनी हुई होती है अर्थात् औदयिक आदि सर्व विशेषभावरूप मैं=परमपारिणामिकभाव ही परिणमता हूँ और इसलिए मुझे=परमपारिणामिकभाव को ही मुझमें =परमपारिणामिकभाव में जागृति रखनी है और स्वयं को क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, परिग्रह, वासना इत्यादि से बचाना है कि जिसे संवरभाव कहा जाता है, जिससे निर्जरा होती है।
THAT MEANS, I=PURE -AWARENESS = परमपारिणामिकभाव = ज्ञायकभाव AM GETING MANIFESTED AS ALL THE FEELINGS LIKE PAIN, HAPPINESS,