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________________ VII दृष्टि का विषय अर्थात् दर्शनमोहरहित गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है किन्तु दर्शनमोहसहित मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि, मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इसीलिए मिथ्यादृष्टि मुनि की अपेक्षा मिथ्यात्वरहित गृहस्थ श्रेष्ठ है। आचार्यदेव तो यहा तक कहते हैं कि न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।।३४।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार) अर्थात् तीन काल और तीन लोक में देहधारी जीवों को सम्यक्त्व के समान कोई अन्य श्रेष्ठरूपउपकारक नहीं है और मिथ्यात्व के समान अन्य कोई अकल्याणकार-अनुपकारक नहीं है। इसी प्रकार का भाव पण्डित दौलतरामजी ने अपनी सुविख्यात कृति छहढाला में व्यक्त किया है मोक्षमहल की परथम सीढी, या बिन ज्ञान चरित्रा। सम्यक्ता न लहै, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा।। (ढाल ३-१७) तीन लोक तिहुंकाल मांहि नहिं, दर्शन सौ सुखकारी। सकल धरम को मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी।। (३-१६) सम्यग्दर्शन की महत्ता बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव तो यहाँ तक कहते हैं कि किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं।।८८।। ते धण्णा सुकयत्था ते सुरा ते वि पंडिया मणुया। सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।।८९।। (मोक्षपाहुड़) अर्थात् आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या साध्य है? जो नरप्रधान अतीत काल में सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो। जिन पुरुषों ने मुक्ति को करनेवाले सम्यक्त्व को स्वप्नावस्था में भी मलिन नहीं किया, अतीचार नहीं लगाया वे पुरुष धन्य हैं, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पंडित है। मुक्तिमार्ग में सम्यग्दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका की चर्चा करते हुए आत्महित-अभिलाषी जीवों को सर्व प्रथम इसे अंगीकार करने के उपदेश भी जिनागम में यत्र-तत्र देखे जा सकते हैं। आचार्य अमृतचन्द्रदेव पुरुषार्थसिद्धि उपाय में कहते हैं कि तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च।।२१।। अर्थात् इन तीनों में प्रथम समस्त प्रकार सावधानतापूर्वक यत्न से सम्यग्दर्शन को भले प्रकार अंगीकार करना चाहिए क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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