________________
प्रस्तावना
VI
दसरा कारण यह भी है कि हिंसादि या सप्त व्यसनादि पाप धारावाहीरूप से कोई जीव नहीं कर सकता; साथ ही उस पापी जीव को यदाकदा अपने दुष्कृत्य का पश्चाताप भी होता रहता है एवं ऐसे पापी को जगत के जीव भी हेयदृष्टि से देखते हैं। जबकि मिथ्यादर्शनादिरूप महापाप परिणाम धारावाहीरूप से प्रवर्तमान रहते हैं; इन पापों की विद्यमानता रहने पर भी, बाह्य व्रत, तपादि करके वह जीव स्वयं को तो धर्मात्मा मानता ही है; जगत में अन्य जीव भी उसे धर्मात्मा की संज्ञा से सम्बोधन करते हैं, फलस्वरूप उसे 'मैं कोई पाप कर रहा हँ' यह विचार ही उसे उद्भवित नहीं होता।
यही कारण है कि वीतरागी परमात्मा की दिव्यध्वनि से लेकर समस्त भावलिंगी सन्तों एवं ज्ञानीधर्मात्माओं की परम्परा में सर्व प्रथम मिथ्यादर्शन का अभाव करके सम्यग्दर्शन अंगीकार करने का उपदेश निष्कारण करुणा से प्रवाहित हुआ है।
सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता का वर्णन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने अष्टपाहुड़ में दसण मूलो धम्मो (दर्शनपाहड, गाथा-२) कहकर सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल कहा है। इसी प्रकार रत्नकरण्ड श्रावकाचार गाथा ३१ में कहा है कि
दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते।
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते।।३१।। अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा अधिक है; इस कारण सम्यग्दर्शन, मोक्षमार्ग में कर्णधार कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि
जह मूलम्मि विणढे दुमस्स परिवार णत्थि परवड्ढी।
तह जिणदसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिझंति।।१०।। जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति स्थिति, वृद्धि और फलोत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति स्थिति, वृद्धि और फलोत्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य योगीन्द्र देव ने भी कहा है कि
दसणभूमिह बाहिरा जिय वयरुक्ख ण होति। अर्थात् हे जीव! इस सम्यग्दर्शन भूमि के बिना व्रतरूप वृक्ष नहीं होता। इसलिए प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए।
(योगीन्द्रदेव कृत श्रावकाचार) सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता का वर्णन करते हुए आचार्य समन्तभद्रदेव तो मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ को भी श्रेष्ठ कहते हैं। उनका यह कथन इस प्रकार है
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः।।३३।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार)