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________________ दृष्टि का विषय प्रस्तावना इस अनादि संसार में अनन्त जीव निज आत्मस्वरूप की पहिचान एवं अनुभूति के अभाव में अनादि से जन्म-मरण करते हुए अनन्त दुःखी हो रहे हैं। जीवों के अनन्त दुःखों का एकमात्र कारण परद्रव्यों एवं परभावों में एकत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व भाव ही है। इसी तथ्य को आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने इस शब्दों में व्यक्त किया है'इस भवतरु का मूल इक जानहू मिथ्याभाव' (मोक्षमार्गप्रकाशक, अध्याय ७, मंगलाचरण) अनादिकालीन इस विपरीतमान्यतारूप मिथ्यात्वभाव की पुष्टि कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र के निमित्त से होती है और जीव अपनी विपरीतमान्यता को अत्यन्त दृढ़ कर लेता है। इस कारण संसार-परिभ्रमण के अभाव के मार्ग से अत्यन्त दूर हो जाता है। यह मिथ्यात्व ही है जिसके कारण जीव निगोद जैसी हीनतम दशा को प्राप्त होकर अत्यन्त दुःखी होता है। यही कारण है कि सम्पूर्ण जिनागम में मिथ्यात्व-मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञानमिथ्याचारित्र को एक स्वर में पाप संज्ञा दी गयी है। करणानुयोग में तो मिथ्यादृष्टि जीव को ‘पापजीव' कहकर सम्बोधित किया गया है। इस मिथ्यादर्शनरूप परिणाम के रहते हुए कदाचित् यह जीव नौवें ग्रैवेयक जानेयोग्य महाशुभपरिणाम भी कर ले, तो भी संसार-परिभ्रमण का अभाव नहीं होता और न अनन्त कष्टों का ही अन्त होता है। इसीलिए कहा है कि मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायौ पै निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायौ। (छहढाला, चौथी ढाल) पण्डित टोडरमलजी ने तो अपनी लोकप्रिय कृति मोक्षमार्गप्रकाशक में मिथ्यात्व को सप्त व्यसनादि से बड़ा पाप कहा है। उनका कथन इस प्रकार है 'जिनधर्म में यह तो आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर फिर छोटा पाप छुड़ाया है। इसलिए इस मिथ्यात्व को सप्त व्यसनादिक से बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिए जो पाप के फल से डरते हैं; अपने आत्मा को दुःखसमुद्र में नहीं डुबाना चाहते, वे जीव इस मिथ्यात्व को अवश्य छोड़ो।' (छठवाँ अध्याय) इसका कारण यह है कि सप्त व्यसनरूप पाप चारित्रिक पाप है, जिसके फल में सातवें नरक तक की स्थिति तो हो सकती है, किन्तु सम्यग्दर्शन के लिये अनिवार्य योग्यतारूप संज्ञी पञ्चेन्द्रियपना इत्यादि का अभाव नहीं होता; अत: कोई-कोई जीव सप्तम नरक की भीषण प्रतिकूलता में भी स्वरूपलक्ष्य करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेते हैं। जबकि मिथ्यादर्शन के फलस्वरूप प्राप्त निगोददशा में तो वह योग्यता दीर्घकाल तक अभावरूप हो जाती है।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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