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दृष्टि का विषय
है और यही विधि है जैन सिद्धान्त की पर्यायरहित द्रव्य को देखने की, इसलिए ही आचार्य भगवान ने आगे की गाथा में कहा है कि
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गाथा ३०८ - अन्वयार्थ - ' इस प्रकार यहाँ तत्त्व को जाननेवाले कोई भी जैन तत्त्व वेदी ऐसे होते हैं वे स्याद्वादी कहलाते हैं तथा इससे अन्यथा जाननेवाले सिंह माणवक (बिल्ली को सिंह माननेवाले) कहलाते हैं । '
भावार्थ " इस प्रकार अनेकान्तात्मक तत्त्व को विवक्षावश विधि और निषेधरूप जाननेवाला कोई जैन ही सच्चा तत्त्वज्ञानी तथा स्याद्वादी कहलाता है परन्तु इससे अन्य प्रकार से वस्तु स्वरूप को जाननेवाला पुरुष सच्चा तत्त्वज्ञानी या स्याद्वादी नहीं कहा जा सकता परन्तु सिंह माणवक कहलाता है अर्थात् जैसे बिल्ली को सिंह कहा जाता है परन्तु वास्तव में वह सिंह नहीं किन्तु बिल्ली ही है; इसी प्रकार उपरोक्तानुसार तत्त्व को न जानकर अन्यथा प्रकार से जाननेवाले पुरुषों को भी उपचार से ही तत्त्वज्ञानी कहा जा सकता है परन्तु वास्तव में नहीं । '
अर्थात् यह बात लक्ष्य में लेने योग्य है कि जो कोई यहाँ बतलायी गयी विधि से वस्तु व्यवस्था न मानते हों, उन्हें नियम से मिथ्यात्वी ही समझना; आगे भी आचार्य भगवन्त यही वस्तु व्यवस्था दृढ़ कराते हैं। जैसे कि
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गाथा ३३१ - भावार्थ - ‘'तद्भाव और अतद्भाव को (परस्पर) निरपेक्ष मानने से पूर्वोक्त कार्य कारणभाव के अभाव का प्रसंग आता है, परन्तु यदि दोनों को (परस्पर) सापेक्ष माना जाये तो 'तदिदं' (यह वैसा ही है) 'तदिदं न' (यह वैसा नहीं) इस आकारवाले तत्भाव और अतत्भाव प्रतीति में कार्य-कारण तथा क्रिया-कारक ये सब सिद्ध हो जाते हैं। सारांश कि - '
गाथा ३३२ - अन्वयार्थ - 'सारांश यह है कि सत्-असत् की तरह तत् तथा अतत् भी विधि निषेधरूप होते हैं परन्तु निरपेक्षरूप से नहीं, क्योंकि परस्पर सापेक्षरूप से तत्-अतत् ये दोनों भी तत्त्व हैं।' अन्यथा अर्थात् निरपेक्षरूप से वह अतत्त्व ही है यह समझना आवश्यक है।
गाथा ३३३ - अन्वयार्थ - 'पूर्वोक्त कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जिस समय केवल तत् की विधि मुख्य होती है, उस समय कथंचित् अपृथक् होने के कारण से अतत् गौण हो जाता है। इसलिए वस्तु सामान्यरूप से तन्मात्र कहलाती है।' यही विधि है त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की प्राप्ति की ।
गाथा ३३४ - अन्वयार्थ - 'तथा जिस समय पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से केवल अतत्,