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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
यह विवक्षा करने योग्य विधि मुख्य होती है, उस समय तत् वह स्वयं गौण होने से अविवक्षित रहता है इसलिए वस्तु को अतन्मात्र कहने में आता है।'
ऐसा है जैन सिद्धान्तानुसार वस्तु का स्वरूप, जो समझे बिना विकृत धारणाओं का अन्त शक्य ही नहीं है, कि जो मोक्षमार्ग के प्रवेश के लिये अत्यन्त आवश्यक है, अर्थात् सम्यग्दर्शन के लिए विकृत धारणाओं का अन्त और सम्यक् धारणा का स्वीकार अत्यन्त आवश्यक है।
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गाथा ३३७ - अन्वयार्थ - 'ठीक है, परन्तु निश्चय से 'सर्वथा' इस पदपूर्वक सर्व कथन स्व-पर के घात के लिये हैं परन्तु स्यात् पद द्वारा युक्त सर्व पद स्व-पर के उपकार के लिये हैं। ' अर्थात् स्याद्वाद के अतिरिक्त किसी का भी उद्धार नहीं है, यह बात सर्व जैनों को तो जरा भी भूलने योग्य है ही नहीं।
गाथा ३३८ अन्वयार्थ 'अब इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे सत् स्वतः सिद्ध है (नित्य है, उसी प्रकार वह परिणमनशील भी है। (उत्पाद - व्ययरूप =अनित्य भी है) इसलिए एक ही सत् दो स्वभाववाला होने से (यहाँ दो स्वभाववाला बतलाया है-दो भागवाला नहीं समझना) वह नित्य तथा अनित्यरूप है।' नहीं कि एक भाग अपरिणामी और एक भाग परिणामी । अपेक्षा ध्रुव को अपरिणामी कहा जाता है परन्तु वैसा माना नहीं जाता।
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गाथा ३३९-३४० अन्वयार्थ - 'सारांश यह है कि जिस समय यहाँ केवल वस्तु (ध्रुव = द्रव्य) दृष्टिगत होता है, परिणाम दृष्टिगत नहीं होते, उस समय वहाँ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वस्तुपने का नाश नहीं होने से सम्पूर्ण वस्तु (यहाँ ध्यान में लेने योग्य बात यह है कि सम्पूर्ण वस्तु बतायी हुई है उसमें से कुछ भी निकालने में नहीं आया - सम्पूर्ण वस्तु अर्थात् प्रमाण का विषय) नित्य है (ध्रुव है)। अथवा जिस समय निश्चय से केवल परिणाम दृष्टिगत होते हैं, वस्तु (ध्रुव = द्रव्य) दृष्टिगत नहीं होता, उस समय पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से नवीन पर्याय की उत्पत्ति तथा पूर्व पर्याय का अभाव होने से सम्पूर्ण वस्तु ही अनित्य है (अर्थात् पर्यायरूप है)।'
इसलिए समझना यह है कि जो पर्यायार्थिकनय के विषयरूप पर्याय है, उसी में द्रव्य अन्तर्गत=गर्भित हो जाने से वह पर्याय, उस द्रव्य की ही बनी है, ऐसा कहा जा सकता है और वही द्रव्य अगर शुद्धय से शुद्ध देखने में आवे तो वही पंचमभाव अर्थात् परमपारिणामिकभाव है। इस कारण से किसी को प्रश्न हो कि समयसार गाथा १३ में बतलाया है कि 'नौ पदार्थ में (तत्त्व में) छुपी हुई आत्मज्योति' वह क्या है? तो उसका उत्तर यह है कि वह शुद्ध नय र पारिणामिकभाव ही है, यह बात हम आगे विस्तार से समझेंगे।
गाथा ४११ – अन्वयार्थ - 'निश्चय से अभिन्न प्रदेश होने से कथंचित् सत् (ध्रुव= द्रव्य)
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